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आदि की चर्चा नगण्य है। फलतः, विभिन्न युगों में देवगढ़ में जैन धर्म किस गति से और किस रूप में विकसित हुआ, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता।
1. धार्मिक जीवन के प्रतिनिधि
साधु समुदाय
देवगढ़ के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि वहाँ का साध्वर्ग श्रावकों पर अच्छा प्रभाव रखता था। स्थान-स्थान पर श्रावक-श्राविकाओं को साधु-साध्वियों की विनय या उपासना करते हुए अंकित किया गया है।' साधुवर्ग स्वयं भी प्रबुद्ध था। वह अपना समय अध्ययन, मनन और अध्यापन में ही व्यतीत करता था। हाथ में ग्रन्थ लिये हुए उपाध्याय परमेष्ठी को साधुओं के समक्ष उपदेश देते हुए अंकित किया जाना देवगढ़ में साधारण बात है। अनेक स्थानों पर साधु-साध्वियों को उपाध्याय या आचार्य परमेष्ठी की उपासना करते हुए अंकित दर्शाया गया है।
भट्टारक
देवगढ़ में भट्टारकों का प्रचार और प्रभाव अपनी चरम सीमा पर पहुँचा रहा प्रतीत होता है। जैसा कि अन्यत्र भी हुआ है, देवगढ़ में भी भट्टारकों के कारण एक ओर जैन धर्म को सुरक्षा और प्रभावना का वरदान मिला, तो दूसरी ओर आडम्बरप्रियता और भौतिकता का अभिशाप भी मिला। ऐसी प्रवृत्तियाँ तत्कालीन भारत में सर्वदेशीय और सभी धर्मों में परिलक्षित होती हैं। शैव-परम्परा में कौल और कापालिक सम्प्रदाय आध्यात्मिक कोटि के नहीं थे। ऐसे लोग चमत्कार-प्रदर्शन, भोगविलास और भौतिकवाद की प्रवृत्तियों में अधिक विश्वास रखते थे, मन्दिरों में भी सम्भोग की वस्तुएँ उपलब्ध कराते थे। खजुराहो, भेड़ाघाट और कोणार्क में इनके केन्द्र थे। काश्मीर में तो इनकी परम्परा अब भी उपलब्ध होती है।
दक्षिण भारत, राजस्थान और अन्य बहुत-से स्थानों के भट्टारकों ने ग्रन्थ-रचना और शास्त्रभण्डारों की सुरक्षा के महत्त्वपूर्ण कार्य किये, किन्तु देवगढ़ में न तो उनके
1. दे.-चित्र सं. 22, 77 से 83 तक, 86, 88, 90, 91 तथा स्तम्भ सं. 3, 1| आदि। 2. दे.-आचार्य-उपाध्यायों की मूर्तियाँ तथा विभिन्न पाठशाला दृश्य । चित्र सं. 75 और 77 से 85
तक। 3. दे.-विभिन्न पाठशाला दृश्य तथा चित्र सं. 77 से 82 तक एवं 85 । 4. विस्तार के लिए दे.--प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी : मध्यप्रदेश का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक
अनुशीलन, बुलेटिन आफ़ ऐंश्यंट इण्डियन हिस्ट्री एण्ड आयोलाजी, संख्या । (सागर, 1967 ई.), पृ. 871
212 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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