Book Title: Devgadh ki Jain Kala
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 215
________________ द्वारा संगृहीत शास्त्र-भण्डार उपलब्ध हुआ है और न उनके द्वारा रचित ग्रन्थ ही कहीं दिखाई पड़े हैं । सुविधा की दृष्टि से, यहाँ जैन धर्म को मुनि धर्म और श्रावक धर्म के दो भागों में विभक्त करेंगे और तत्पश्चात् विचार करेंगे कि देवगढ़ में उनका प्रचार किन रूपों में और कहाँ तक रहा। 2. भट्टारक प्रथा का आविर्भाव मुनिवर्ग, जिसमें आचार्य और उपाध्याय भी सम्मिलित हैं, का देवगढ़ में उपलब्ध तथा अन्य सहायक स्रोतों से मूल्यांकन करने के लिए यह देखेंगे कि जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा में मुनि-धर्म का विकास किस प्रकार हुआ। इसके साथ ही यह भी देखेंगे कि भट्टारकवर्ग, जो अब भी यत्र-तत्र विद्यमान है, मुनिवर्ग से किस प्रकार आविर्भूत हुआ और उसने अपने को श्रावक वर्ग की अपेक्षा मुनिवर्ग में या उसके समीपतर ही परिगणित कराना क्यों आवश्यक समझा । मूलसंघ और उसपर काल - दोष का प्रभाव निवृत्ति - प्रधान जैनधर्म में मुक्ति के साधक, गृहत्यागी, तपस्वी, श्रमण साधुओं की परम्परा प्राचीन काल से है । इसके मूलसंघ में ऐसे मुनियों का समुदाय था जो शास्त्रोक्त मुनि-चरित्र का पालन करता था । इस समुदाय में धरसेन,' भूतबली, 1. धरसेन से लेकर गुणभद्र तक के आचार्यों के विस्तृत और प्रामाणिक परिचय के लिए दे. - ( अ ) धरसेन 1 ) षट्खं. : डॉ. ही. ला. जैन, सम्पा. ( अमरावती, 1939), जिल्द 1, प्रस्ता., पृ. 13-15, 23-31। 2) डॉ. जगदीशचन्द्र जैन : प्रा. सा. इ. ( वाराणसी, 1961 ई.), पृ. 274-88 । पं. कैलाशचन्द्र शा. : जै. ध., पृ. 24614) डॉ. ही. ला. जैन भा. सं. जै. यो., पृ: 53, 74, 821 5) पं. परमानन्द शा. काष्ठा संघ लाट बागड गण की गुर्वावली, अने., व. 15, कि 3, पृ. 135-37 | (ब) भूतबलि 1) षट्खं., जिल्द 1, प्र. पृ. 17-21 | 2) प्रा.सा. इ., पृ. 247। 4) भा. सं. जै.यो., पृ. 32, 42, 53, 74 1 5 ) अने., व. 15 (स) पुष्पदन्त 1 ) षट्खं., जि. 1, प्र. पृ. 17-21 1 2 ) प्रा. सा. इ., पृ. 98, 148, 274, 279 तथा 324। 3 ) जै. ध. पृ. 247 1 4 ) भा. सं. जै. यो. पृ. 53 और 7415) अने., व. 15 कि. 3, पृ. 137 1 (द) कुन्दकुन्द 1 ) षट्खं, जि. 1, प्र. पृ. 31, 46-48। 2) प्रा. सा. इ., पृ. 297-30213) प्रवचनसार, डॉ. ए. एन. उपाध्ये सम्पादित ( बम्बई, 1935 ई.), प्र. पृ. 22 1 4 ) जै. ध., पृ. 247-48 1 5) पं. कैलाशचन्द्र शा. : जै. न्या. (काशी, 1966 ई.), पृ. 6-8 1 6 ) समयसार : जे. एल. जैनी सम्पा., अँगरेजी (लखनऊ 1930), भूमिका, पृ. 1-8 17 ) समयसार : ए. चक्रवर्ती सम्पा. (अँगरेजी), (काशी, 1950 ई.), भू. पृ. 147-50। 8 ) मुख्तार जुगलकिशोर जै.सा.इ.वि.प्र. धार्मिक जीवन :: 213 Jain Education International 289-93 1 3) जै. ध., पृ. कि. 3, पृ. 137 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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