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परन्तु उसके समक्ष मायादेवी या विष्णु के समान लेटा हुआ दिखाया जाने योग्य पात्र खोज निकालने की समस्या आयी होगी। क्योंकि तीर्थंकर की यह स्थिति सम्भव नहीं, कोई देव, पूजा का पात्र नहीं, कोई साधु अलंकरण और परिकर के साथ दिखाया नहीं जा सकता और किसी राजा या अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को जैन मन्दिर में उत्कीर्ण नहीं किया जा सकता। पर कदाचित् किसी भट्टारक के अध्ययन या देखने में तीर्थंकर की माता के उपर्युक्त (या किन्हीं अन्य) अंकनों में से कोई आया होगा। और उसने यही पात्र मायादेवी या शेषशायी विष्णु की अनुकृति के लिए सर्वाधिक अनुकूल समझा होगा। फिर कलाकार की छैनी चल पड़ी और देवगढ़ की जैन कला में इस आकर्षक तथा उत्कृष्ट कृति का निर्माण हो उठा।
तीर्थंकर-माता की इन दो मूर्तियों के अतिरिक्त श्रावक-श्राविकाओं की और भी अनेक मूर्तियाँ भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत की गयी हैं।
3. भक्त श्रावक-श्राविका : आचार्य परमेष्ठी' की सेवा में खड़े एक चँवरधारी श्रावक के कन्धे पर झोली टँगी है। इसके दोनों हाथ कलाइयों के ऊपर से खण्डित हैं। उसका झुका हुआ किन्तु खण्डित मस्तक हमें भी भक्ति से अभिभूत कर देता है। आचार्य की दूसरी ओर एक श्राविका जो कदाचित् उक्त श्रावक की पत्नी होगी छत्र धारण किये खड़ी है। यह छत्र किंचित् खण्डित होकर भी अपनी कलागत विशेषता के लिए उल्लेखनीय है। श्राविका की वेश-भूषा और आभूषण सादे किन्तु मोतियों के हैं। उत्तरीय पीछे से हाथों में फँसकर फिर पीछे निकल गया है। केश-सज्जा खजुराहो की कला का स्मरण दिलाती है। मुखमण्डल खण्डित है।
इसी मन्दिर (संख्या 1) के मण्डप में एक मूर्तिफलक के पादपीठ में विनम्र श्राविका की वेशभूषा में उसकी स्तनपट्टिका विशेष उल्लेखनीय है।
4. विनयी श्रावक : यहाँ जैन चहारदीवारी में एक ऐसी श्रावक-मूर्ति जड़ी हुई है, जो वस्त्राभूषण, परिष्कृत-अभिरुचि एवं विनम्र भाव-भंगिमा आदि की दृष्टि से विशेष तथा विरल कही जाएगी। उसकी वेश-भूषा जहाँ उसके समृद्ध वैभव और ऐश्वर्य की अभिव्यक्ति करती है वहाँ सहज करबद्ध विनय-मुद्रा उसकी आन्तरिक पवित्रता तथा विनम्रता को सूचित करती है।
कदाचित् यह मूर्ति किसी ऐसे समृद्ध श्रावक की है जिसने यहाँ किसी विशेष जिनालय का निर्माण कराया होगा और वह अपने अभीष्ट तीर्थंकर के समक्ष सदैव विनय प्रदर्शित करना चाहता होगा। अतः मूलरूप में यह मूर्ति किसी मन्दिर के बाहर मूलनायक तीर्थंकर की ओर मुख करके स्थापित की गयी होगी।
1. मं. सं. एक के मण्डप में जड़े हुए। 2. दे.-चित्र सं. 801 3. दे.-चि. सं. 122।
184 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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