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कहें तो अधिक अच्छा होगा। मिट्टी के ढेले या पत्थर के टुकड़े से पर्वत का और जल की क्षुद्र धारा से विशाल नदी का बोध कराना भी प्रतीकों में स्थान पाता है। यही द्वितीय, तदाकार प्रतीक की मान्यता का सूत्रपात है। विभिन्न रूप
अब हमारे समक्ष प्रतीक के तीन रूप स्पष्ट हैं : 1. शब्दात्मक, 2. अतदाकार और 3. तदाकार।
वर्तमान विचारकों और दार्शनिकों के विचार से अब कदाचित् शब्दात्मक प्रतीक को प्रतीक-कोटि में न रखा जाय, पर शेष दो प्रतीक तो अब भी मान्य हैं। ___मानव की विवेचनात्मक या उपयोगी-अनुपयोगी वस्तुओं में भेद करने की योग्यता के विकास के साथ प्रतीक-मान्यता ने भी विभिन्न रूप धारण किये। उपयोगी वस्तु का प्रतीक शुभ माना जाने लगा और अनुपयोगी वस्तु का प्रतीक अशुभ । यहीं से प्रतीकों के प्रति सम्मान या असम्मान का भाव जाग्रत होता है। उपयोगी या अभीष्ट वस्तु के प्रतीक की कल्पना अधिक सुन्दर रूप में की गयी। प्रारम्भ में उसकी तदाकारता या अतदाकारता पर कम ध्यान दिया गया, परन्तु मानव में ज्यों-ज्यों कलाबोध विकसित हुआ, त्यों-त्यों प्रतीक की तदाकारता को महत्त्व मिलता गया। तदाकार प्रतीक को महत्त्व इसलिए भी मिला कि वह मानव-भावना को अतदाकार प्रतीक की अपेक्षा अधिक शीघ्रता एवं सुन्दरता से जाग्रत कर लेता है।
मूर्ति-कल्पना
प्रतीक के क्षेत्र में मानव की सुन्दरतम उपलब्धि थी-मूर्ति की कल्पना। उसने प्रारम्भ में जब अपने सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति को मूर्ति के रूप में प्रस्तुत कर लिया होगा, तब वह अपनी अपूर्व सफलता पर झूम उठा होगा। मूर्तिरूप प्रतीक की लोकप्रियता निरन्तर बढ़ी और अब भी बढ़ रही है। यह प्रतीक भी समयक्रम से शुभ एवं अशुभ के रूप में विभक्त हो चला। अशुभ वस्तु को मूर्तरूप प्रतीक देने में मानव ने अपना अपमान अनुभव किया और यही कारण है कि अनुपयोगी या दुरुपयोगी वस्तुओं के प्रतीक या तो मूर्तरूप नहीं होते या उनका मूर्तरूप उतना सुघड़ तथा कलापूर्ण नहीं होता, जितना कि उपयोगी वस्तुओं का।
मूर्ति-पूजा का जन्म
मूर्तरूप प्रतीक चूँकि उपयोगी या अभीष्ट वस्तु का ही बनाया जाने लगा, अतः उसकी मान्यता भी बढ़ चली। यह मान्यता विभिन्न रूपों में प्रकट हुई। मूर्ति को सुरक्षित तथा सुन्दर स्थान में रखा गया। अभीष्ट प्ररणा या शक्तिसंचार के लिए
190 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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