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हैं । उनके हाथ का ग्रन्थ उनके उपाध्याय पद का प्रतीक है। वे कभी स्वयं पढ़ते दिखाई देते हैं, 2 कभी दो या अधिक मिलकर तत्त्वचर्चा करते हुए दिखाये गये हैं । " और कभी साधुओं तथा श्रावकों को धर्मोपदेश देते हुए अंकित हैं। तो कभी पाठशालाओं में शिक्षा देते हुए दृष्टिगत होते हैं ।" उनकी पाठशालाओं में विनयावनत साधुओं से लेकर बालकों की टोली भी उपस्थित होती थी, परन्तु कभी भी वे उद्विग्न होकर क्रुद्ध नहीं होते थे। उनके इन सभी क्रियाकलापों से प्रकट होता है कि वे स्वाध्याय नामक तप के पाँचों अंगों का भली-भाँति पालन करते थे। 7
(स) साधु
साधुओं के अंकन देवगढ़ में बहुत हैं । साधुओं में जिनकी मूर्ति का उल्लेख
( ब ) 'जो रयणत्तयजुत्तो, णिच्चं धम्मोवएसणे णिरदो । सो उवझाओ अप्पा, जदिवरवसहो णमो तस्स ॥'
( स ) 'दिशन्ति द्वादशाङ्गादि शास्त्रं लाभादिवर्जिताः । स्वयं शुद्धव्रतोपेता उपाध्यायास्तु ते मताः ॥ '
- मुनि आदिसागर : त्रिकालवर्ती महापुरुष, पृ. 125 1 1. साधु जैन संग्रहालय, दि. जैन चैत्यालय, मं. सं. एक, चार आदि तथा विभिन्न मानस्तम्भ और हाथी दरवाजा । और भी दे. - चित्र सं. 83, 84, 85, तथा 77 से 82 तक ।
2. द्वितीय कोट का प्रवेश-द्वार, मं. सं. एक, चार तथा मं. सं. 12 के सामने पड़े हुए अवशेष । दे. - चित्र सं. 79, 81 और 82 ।
- नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्रव्यसंग्रह, गाथा 53 ।
3. मं. सं. एक का पृष्ठभाग, चार तथा मं. सं. 22 के सामने पड़े हुए अवशेष और विभिन्न मानस्तम्भ । और भी दे. - चित्र सं. 75, 82
4. मं. सं. एक, चार तथा मं.सं. 12 के सामने पड़े हुए अवशेष, द्वितीय कोट का प्रवेश द्वार एवं विभिन्न मानस्तम्भ । दे. - चित्र सं. 77 से 82 तक ।
5. दे. - चित्र सं. 77 से 82 तक ।
6. द्वितीय कोट का प्रवेश-द्वार, मं.सं. चार तथा मं. सं. 12 के सामने पड़े हुए अवशेष। दे. - चित्र सं. 79, 81 और 82
'वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ।'
7.
8.
- उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ. 9 सूत्र 25।
(अ) 'चिरप्रव्रजितः साधुः । चिरकालभावितप्रव्रज्यागुणः साधुरित्याम्नायते ।'
- अकलंकदेव : तत्त्वार्थवार्तिक ( राजवार्तिक), पृ. 623 1
( ब ) 'दंसणणाणसमग्गं, मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं । साधयदि णिच्चसुद्धं, साहू सो मुणी णमो तस्स ॥'
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- नेमिचन्द्र सि.च. द्रव्यसंग्रह, गाथा 54 ।
(स) 'ये व्याख्यान्ति न शास्त्रं न ददति दीक्षादिकं च शिष्याणाम् । कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यानरतास्तेऽत्र साधवो ज्ञेयाः ॥'
- मुनि आदिसागर : त्रिकालवर्ती महापुरुष, पृ. 225 1
170 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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