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2. मं. सं. एक के पीछे जड़ी आचार्य मूर्ति : एक विशाल शिलापट्ट पर जिसके दोनों कोनों पर एक-एक कायोत्सर्ग तीर्थंकर मूर्ति अंकित है, मध्य में एक हृष्ट-पुष्ट पुस्तकधारी आचार्य बैठे हैं, उनके दोनों ओर एक-एक उपाध्याय पुस्तक लिये हुए निदर्शित हैं । उपाध्यायों के पीछे खड़े हुए एक-एक अंजलिबद्ध साधु आचार्य को नमस्कार कर रहे हैं । उपाध्यायों का एक-एक हाथ वितर्क मुद्रा में है जो हमें महात्मा बुद्ध की धर्म-प्रवर्तन मुद्रा का स्मरण कराती है ।
3. अशोक वृक्ष के नीचे आचार्य का अंकन : एक अन्य शिलाफलक पर अशोक वृक्ष का अंकन है, उसके नीचे हृष्ट-पुष्ट आचार्य एवं उनके दोनों ओर एक-एक उपाध्याय बैठे हैं। अशोक वृक्ष के ऊपर मध्य में पद्मासन पार्श्वनाथ तथा उनके दोनों ओर तीन-तीन साधु कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित हैं ।
4. आचार्य की विरल मूर्ति (छत्रधारिणी श्राविका सहित) : मं. सं. एक के मण्डप (पूर्व) में आचार्य की एक महत्त्वपर्ण तथा विरल मूर्ति जड़ी हुई है । यद्यपि इस पद्मासन मूर्ति के दोनों हाथ खण्डित हैं तथापि दायें हाथ में ग्रन्थ स्पष्ट दिखाई पड़ता है। पादपीठ में उनकी पीछी का सुस्पष्ट अंकन हुआ है। आचार्य की केशराशि ऐसी उगी हुई दिखाई पड़ती है जैसी कि केशलुंचन के पश्चात् उगती है
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इनके दायें तथा बायें दो उपाध्याय पद्मासन और उपदेश मुद्रा में स्थित हैं तथा अपने हाथ में ग्रन्थ लिये हुए हैं। आचार्य के दायें (पार्श्व में) एक श्रावक का अंकन है । उसका दायाँ हाथ खण्डित है और उसके दायें कन्धे पर पीछे की ओर एक झोली टॅगी हुई है। इस श्रावक के दोनों हाथ कलाइयों से टूट गये हैं किन्तु उनके शेष भाग की स्थिति से ज्ञात होता है कि वह विनयपूर्वक हाथ जोड़े हुए था । कदाचित् वह अपने हाथों में चँवर लिये था । उसका मस्तक झुका हुआ किन्तु खण्डित है आचार्य के बायें ओर उपाध्याय के पीछे एवं आचार्य के कमण्डलु के पास एक श्राविका आचार्य के ऊपर छत्र लगाये हुए खड़ी है । यह छत्र किंचित् खण्डित होकर भी अपनी कलागत विशेषता और विरलता के लिए उल्लेखनीय है ।
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इस आचार्य मूर्ति के पादपीठ में आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ वन्दना करती हुई अंकित की गयी हैं। आर्यिकाओं की बाजू में पीछियाँ दबी हैं तथा श्राविकाएँ नारियल लिये हुए हैं। आचार्य की मुखमुद्रा अत्यन्त प्रशान्त और प्रभावोत्पादक है । सम्पूर्ण अंकन अत्यन्त नयनाभिराम है।
1. दे. - मं. सं. एक के पृष्ठ भाग में जड़ा हुआ ।
2. दे. - चित्र सं. 781
3. दे. - मं. सं. एक के पृष्ठ भाग में (दायीं ओर) जड़ा हुआ।
4. दे. - चित्र सं. 80 1
174 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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