________________
मान्दर सत्तामा लाग्न का कोटि में आ सकता है। इसकी द्वाराकृतियाँ वास्तव में अत्यन्त भव्य बन पड़ी हैं।
उनक तथाकथित कपाट इतनी सूक्ष्मता और यथार्थता से उत्कीर्ण हुए हैं कि उनकं वास्ता धक होने का भ्रम हा विना नहीं रहता। प्रवेश-द्वारों और कपाटों से ऐसे अलंकरण बाद में भी चलते रहे। पूना के निकट (लगभग 20 मील) 'वाई' नामक ग्राम में एक जमींदार के निवास में अत्यन्त अलंकृत प्रवेश-द्वार है। प्रस्तुत द्वार और कपाट वास्तविक नहीं हैं बल्कि पापाण-निर्मित हैं, जबकि 'वाई' ग्राम में वे वास्तविक आर काप्ठनिर्मित होन के साथ ही साथ उत्तरवर्ती (अव से लगभग 150 वर्ष प्राचीन) भी हैं। तथापि इन दोनों में अलंकरण सम्बन्धी क्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।
इस मन्दिर में तीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं : (1) पश्चिमी-द्वार के बायीं ओर वहिभित्ति पर आर (2) पश्चिमी द्वार की ड्योढ़ी पर उत्कीर्ण तथा (3) पूर्वी द्वार के भीतर ऊपर जड़ा हुआ, जिनमें क्रमशः संवत् 1120, 1500 और 1503 पढ़ा जा सकता है। प्रथम दो अभिलेखों में यात्रियों के कीर्तिमान हैं, जबकि तीसरे में इस मन्दिर के जीर्णोद्धार का उल्लेख है। मन्दिर के निर्माण का उल्लेख किसी में नहीं है।
(9) मन्दिर संख्या 11
विवेच्य मन्दिर (चित्र संख्या 15), देवगढ़ के एकमात्र द्वितल मन्दिर के रूप में उल्लेखनीय है। इसकी वहिभित्तियाँ अलंकृत न होकर भी खजुराहो का पूर्वरूप प्रतीत होती हैं। दानों तलों के प्रवेश-द्वारों को भी अलंकरण की दृष्टि से खजुराहो का पूर्वरूप कहा जा सकता है। सम्भोगरत युग्म, आकर्षक चेष्टाओं में मग्न सुन्दरियों ओर मोहक मद्राओं में प्रस्तुत अप्सराओं की विरल संयोजना भी उक्त तथ्य को पुष्ट करती है। आश्चर्य नहीं कि खजुराहो के स्थपति और मूर्तिकार ने यहाँ प्रशिक्षण प्राप्त करके ही वहाँ अपना कौशल दिखाया हो।
बहिभित्तियों में अधिष्ठान से 2 फुट 2 इंच की ऊंचाई से 3 फुट 6 इंच ऊँची
1. (अ) अलिन्दाना व्यवच्छेदो नास्ति यत्र समन्ततः ।
तद्वान्तु सर्वतोभद्रं चतुर्दार-समायुतम् ।। वराहमिहिर : वृत्संहिता : (बंगलौर, 1917), अध्याय 53, श्लोक 31 की टीका में उद्धृत गर्ग का मत। (व) अग्निपुराण : अध्याय ।।01, पद्य 14। (स) गरुडपुराण : अध्याय 47, पद्य 22 । (द)
अपराजितपृच्छा, 159, 13-1601 '. क्लाउड वाटली (Claud Beatley) : दी डिजाइन डेवलपमेण्ट ऑव इण्डियन आर्चीटेक्चर (लंदन
1918), फलक 371 3. मन्दिर संख्या 3 भी पहले द्वितल था, परन्तु उसके अत्यन्त जीर्ण हो जाने से वर्तमान में उस
एकतल कर दिया गया है।
स्थापत्य :: 115
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org