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गये हैं। पादपीठ पर भी (दोनों ओर) चँवरधारी इन्द्रों की भावपूर्ण मुखमुद्राएँ दर्शनीय
ऋषभनाथ
इसी प्रकार की अनेक मूर्तियाँ देवगढ़ में और भी देखी जा सकती हैं, जिनमें से मं. सं. तीन में अवस्थित कायोत्सर्गासन ऋषभनाथ की मूर्ति का विवेचन प्रस्तुत है। यह मूर्ति 2 फुट 6 इंच ऊँचे और 1 फुट 9 इंच चौड़े शिलाफलक पर उकेरी गयी है। इसके हाथ, परिकर, अष्ट-प्रातिहार्य तथा कुछ अन्य अंश खण्डित हो गये हैं। सिंहासन में यक्ष, श्रावकयुगल, सिंहयुगल और वृषभ का अंकन अत्यन्त सूक्ष्मता और सुन्दरता के साथ किया गया है। पादमूल में दो कमलधारी त्रिभंगी देव (दोनों ओर) खड़े हैं। इन्होंने अपने-अपने हाथ के विकसित कमल ऊपर उठाकर इस ढंग से ले रखे हैं कि वे तीर्थंकर की दोनों हथेलियों में ऐसे जा थमे हैं मानो उन्हें स्वयं तीर्थंकर ने ले रखा हो। परिकर में दोनों ओर तीन-तीन कायोत्सर्ग तीर्थंकरों की तीन-तीन पंक्तियाँ हैं।
अनुमान है कि इस शिलाफलक के खण्डित अंश में शेष पाँच तीर्थंकर भी अंकित रहे होंगे। इस प्रकार इस शिलाफलक को चौबीसी कहना उपयुक्त होगा। इसका भामण्डल अशोकचक्र की अनुकृति पर बनाया गया है, जो इसकी अपनी विशेषता है। इसकी नाभि के नीचे की त्रिवलि, नाभि की गहराई, श्रीवत्स की लघुता, ग्रीवा की त्रिवलि, मुखमण्डल की सौम्यता और अब भी चमकते हुए ‘पालिश' की स्निग्धता-ये सब मिलकर इसे गुप्तोत्तर युग की सिद्ध करते हैं।
सिंहासन पर तीर्थंकर के पादमूल में उत्कीर्ण दो पंक्तियों के अभिलेख में उल्लिखित संवत् 1209 के बावजूद हम इस मूर्ति की निर्माण-काल-सम्बन्धी अपनी उक्त धारणा कायम रखना चाहते हैं, क्योंकि (1) कला की यह सूक्ष्मता और सौम्यता गुप्तोत्तर काल में दृष्टिगत होती हैं, (2) बारहवीं शती तक आते-आते श्रीवत्स का अनुपात काफी बड़ा हो जाता है जबकि यहाँ वह बहुत ही छोटे अनुपात में है, (3) लेख निश्चित ही बाद को उत्कीर्ण कराया गया होगा क्योंकि जितनी भी मूर्तियों पर लेख उत्कीर्ण मिले हैं या मिलते हैं, वे सभी सिंहासन के सामने के हिस्से में मिलते हैं, सिंहासन के ऊपर तीर्थंकर के पादमूल में नहीं, (4) तीर्थंकर-मूर्ति की अपेक्षा गोमुख यक्ष की मूर्ति का लगभग पचासवाँ हिस्सा (लघु आकार में) होना भी इसे गुप्तोत्तर युग की सिद्ध करता है, जबकि भट्टारक प्रथा का प्रचार अधिक नहीं बढ़ा था, जिसके कारण तीर्थंकर मूर्ति क्रमशः छोटी होती गयी और यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ क्रमशः बड़ी होती गयीं।
1. दे.-चित्र सं. 591
मूर्तिकला :: 135
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