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मन्दिर संख्या 2 में कायोत्सर्ग तीर्थंकर
इसी प्रकार मन्दिर संख्या 2 में भी एक कायोत्सर्गासन तीर्थंकर मूर्ति विद्यमान है । इसके सिंहासन का अग्रभाग खण्डित है अतः उसे पहचानना कठिन है । उसके कन्धों पर लगभग एक फुट की जटाएँ आ पहुँची हैं । अतः उसे आदिनाथ की मूर्ति कहा जा सकता है, इसके विरुद्ध उसके परिकर में फणावलि सहित देव ( धरणेन्द्र) के अंकन से उसे पार्श्वनाथ कहना ही अधिक उपयुक्त होगा । श्रीवत्स की आनुपातिक लघुता और कलागत अंकन की सूक्ष्मता के आधार पर इसे गुप्तकाल की मानना चाहिए ।
पद्मासन तीर्थंकर
मन्दिर संख्या 21 के पश्चिमाभिमुख कक्ष में स्थित पद्मासन - तीर्थंकर - मूर्ति (बायें से दायें, तीसरी) अपनी सज्जागत समृद्धि और केन्द्रस्थित तथा चारों ओर स्थित मूर्तियों के चित्ताकर्षक एकीकरण की दृष्टि से गुप्तकालीन कला में भी चार चाँद लगाती प्रतीत होती है । इस मूर्ति के अंग-प्रत्यंगों के गठन में चारुता और कोमलता का अद्भुत समन्वय है । अलंकृत कमलासन पर आसीन तीर्थंकर मानो शान्ति और स्निग्धता का विस्तार कर रहे हैं । मस्तक के पीछे अत्यन्त अलंकृत त्रिवृत्त भामण्डल दर्शनीय है। गौण - मूर्तियों के अंकन में भी सुचारुता का प्रदर्शन उल्लेखनीय है । इसे आठवीं शती ई. के आसपास की कृति माना जा सकता है। यह अत्यन्त खेद का विषय है कि इस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की मूर्ति का मस्तक एक मूर्तिभंजक द्वारा काट लिया गया है।
मन्दिर संख्या 28 के मूलनायक नमिनाथ
ऐसी ही एक 8 फुट 3 इंच ऊँची कायोत्सर्ग मूर्ति' मन्दिर संख्या 28 में भी विद्यमान है। इसके पैरों से कमर तक की ऊँचाई 5 फुट 1 इंच, पैरों से कन्धों तक
1. यह फलक (बायें से दायें) नवम स्थान पर है तथा इसकी ऊँचाई 4 फुट 8 इंच और चौड़ाई । फुट 7 इंच है।
2. जटाधारी तीर्थंकर मूर्तियों को आदिनाथ की ही मान लेना (दे. - अनेकान्त, वर्ष 17, किरण 1, पृ. 43-44) निर्भ्रान्त नहीं होगा। क्योंकि देवगढ़ में ऐसी अनेक मूर्तियाँ विद्यमान हैं जिनके साथ जटाओं के अतिरिक्त विभिन्न तीर्थंकरों के लांछन भी स्पष्ट रूप से अंकित हैं 1
3. दे. - चित्र सं. 61 ।
4. कटा हुआ शिर अब क्षेत्रीय प्रबन्धक समिति को प्राप्त हो गया है, जो शीघ्र ही स्थानीय जैन संग्रहालय में प्रदर्शित किया जाएगा।
5. दे. - चित्र सं. 62 1
136 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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