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हैं। परन्तु कायोत्सर्गासन मूर्ति अधिक कठोर और निष्क्रिय है, जबकि पद्मासनस्थ मूर्ति अधिक सजीव है, पहली भय का संचार-सा करती है जबकि दूसरी करुणा का मूर्तिमान प्रवाह है। पहली संसार के प्रति स्पष्ट अवहेलना का भाव प्रकट करती है परन्तु दूसरी हर्षोत्फुल्ल और अनुप्राणित मूर्तियों से घिरी हुई है, जिनकी उपस्थिति के प्रति वह रंचमात्र भी असहिष्णु नहीं है। मूर्ति के ऊपरी भाग में विद्याधरों और विद्याधरियों का अंकन अत्यन्त आकर्षक मुद्रा में हुआ है। छत्रों के ऊपर उद्घोषक
और उसके दोनों पाश्र्यों में उत्कीर्ण हाथी बहुत प्रभावोत्पादक हैं।' परिकर में यक्षी अम्बिका और यक्ष पार्श्व के अस्तित्व से स्पष्ट है कि यह मूर्ति नेमिनाथ की है, जबकि श्री नीरज जैन ने इसे सन्मति (महावीर) की लिखा है और इसका चित्र भी इसी नाम से मुद्रित कराया है।
अभिनन्दननाथ
मन्दिर संख्या नौ के गर्भगृह में स्थित कायोत्सर्ग अभिनन्दननाथ की' मूर्ति स्निग्ध पालिश, अंग-प्रत्यंग के समानुपातिक अंकन तथा भावाभिव्यक्ति आदि के कारण गुप्तकाल की कला-परम्पराओं की रक्षा करती है। इसका निर्माण काल ईसा की सातवीं-आठवीं शती प्रतीत होता है।
दो फुट तीन इंच लम्बी इस तीर्थंकर मूर्ति के कन्धों पर जटाएँ लहरा रही हैं, जबकि इसके पादमूल में बन्दर का चिह्न स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जटाओं का अंकन केवल ऋषभनाथ के ही साथ हो, यह परम्परा देवगढ़ में नहीं है। इस मूर्ति की एक और विशेषता यह है कि इसके.कन्धों के पार्श्व में तीर्थंकर का अभिषेक करने हेतु दो इन्द्र कलश लिये हुए उपस्थित हैं। दुर्भाग्य से उनके सिर खण्डित हो
1. दे.-चित्र सं. 54। 2. दे.-अनेकान्त, वर्ष 17, किरण 4, पृ. 168 । 3. (अ) वही, मुखपृष्ठ। (ब) इस मन्दिर का जीर्णोद्धार रायबहादुर आदि अनेक उपाधिधारी सेठ
कल्याणमल जी (इन्दौर) की धर्मपत्नी श्रीमती गुलाब बाई द्वारा सन् 1936 में निष्पन्न हुआ। उस समय और उससे पर्व भी यह मति नेमिनाथ तथा यह मन्दिर नेमिनाथ-जिनालय' के नाम से विख्यात रहा होगा, तभी तो इसके जीर्णोद्धार सम्बन्धी अभिलेख में 'नेमिनाथ जिनालय' पद का प्रयोग हुआ है। दे.--उसी मन्दिर में रखा हुआ जीर्णोद्धार सम्बन्धी श्रावण सुदी 15 वीर नि.सं. 2462, विक्रम सं. 1993, दि. 3 अगस्त 1936 का अभिलेख। यह अभिलेख मेरी पूर्व-मान्यता (मूर्ति नेमिनाथ की है) की सम्पुष्टि करता है। यदि श्री नीरज जैन ने इस अभिलेख पर भी ध्यान
दिया होता तो इसे सन्मति (महावीर) लिखने का भ्रम न होता। 4. दे.-चित्र सं. 58। 5. 'चिरं तपस्यतो यस्य जटा मूर्ध्नि बभुस्तराम्।
ध्यानाग्नि-दग्ध-कर्मेन्ध-निर्यद्-धूम-शिला इव ॥' -जिनसेन : आदिपुराण, 1-9।
134 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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