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गुप्तकाल
गुप्तकाल तक आते-आते देवगढ़ का कलाकार मूर्तियों में सजीवता और भावना का संचार करने में पूर्ण सफल हो जाता है।' यद्यपि अलंकरण की सादगी बनी रहती है। यूनानी प्रभाव लुप्त होकर भारतीय आकृति पूर्ण रूप से सामने आ जाती है।
गुप्तोत्तरकाल
परन्तु गुप्तोत्तरकाल में कलाकार मूर्ति को अलंकरण और चमत्कार के घेरे में उलझाने लगते हैं, वे आकर्षण के नाम पर अपनी छैनी की सूक्ष्मता तो अवश्य प्रदर्शित करते हैं, परन्तु मूर्ति के मुखमण्डल पर वह शान्ति और वैराग्य का भाव नहीं उभार पाते जो गुप्तकालीन कला की विशेषता है। इस काल की अन्य धर्मों की कला में भी ये ही प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं।
इस तथा ऐसे ही अन्य कलागत दोषों के लिए न केवल कलाकार उत्तरदायी थे, बल्कि उनके आदेशकर्ता भट्टारक या उनसे प्रभावित श्रावक भी थे। तत्कालीन समाज को भी अलंकरण की बोझिलता रुचिकर थी। आभूषणप्रियता, अन्धविश्वास आदि भी इसमें सहायक थे।
चमत्कार को महत्त्व देने की परम्परा भट्टारकों में प्रारम्भ से रही है। अतः बीसों अस्वाभाविक और अवैज्ञानिक कथाओं को गढ़ने के साथ-ही-साथ उन्होंने कला में भी ऐसे ही तत्त्वों का समावेश प्रारम्भ कर दिया। पार्श्वनाथ के साथ फणावलि के अंकन को प्रोत्साहन देना इनकी इसी प्रवृत्ति का परिणाम है। शिव के साथ नागों की फणावलि आदि और विष्णु की शेषशय्या आदि तथा भ. बुद्ध के पृष्ठ भाग में उभरे हुए लहरियादार वस्त्र ने निश्चय ही भट्टारकों को चमत्कार में डाल दिया होगा। अतः उन्होंने सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के साथ सर्प की फणावलि तो दिखायी ही,
1. दे.-चित्र सं. 50, 51, 52, 53, 54 आदि। 2. (अ) पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : न्यायकुमुदचन्द्रोदय, प्रथम भाग (बम्बई, 1938 ई.), प्रस्तावना पृष्ठ
32 1 (ब) पं. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास (बम्बई, 1942 ई.), पृ. 4011 (स) पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य : न्यायविनिश्चयविवरण, प्रथम भाग (वाराणसी, 1949 ई.), प्रस्तावना
पृ. 61। 3. द्रष्टव्य-साँची पुरातत्त्व-संग्रहालय में ई. चौथी शती की बुद्ध की खड़ी प्रतिमा। 4. यहाँ पर फणावलि सुमतिनाथ (जैन चहारदीवारी के प्रवेश-द्वार के दायीं ओर बाहर ऊपर दूसरे
स्थान पर जड़ी हुई) तथा नेमिनाथ (मं. सं. 12 के महामण्डप में दायें से बायें तीसरी) की मूर्तियों के साथ भी दिखायी गयी है। दे.-चित्र सं. 56 और 63 ।
126 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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