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और अभिलेखों से निष्कर्ष प्राप्त होता है कि इस सम्पूर्ण मन्दिर का निर्माण तीन या चार बार में हुआ है। जिसे अब इस मन्दिर का महामण्डप (चित्र 17) कहा जाता है, वह सम्भवतः एक स्वतन्त्र मन्दिर के रूप में सर्वप्रथम निर्मित हुआ था।
इसके पश्चात् शिखर-युक्त गर्भगृह (चित्र 24) का निर्माण भी एक स्वतन्त्र मन्दिर के रूप में हुआ होगा, फिर गर्भगृह और महामण्डप के मध्यवर्ती अन्तर को, प्रदक्षिणापथ के निर्माण द्वारा पूरा करके इन तीनों कृतियों में एकत्व की संयोजना की गयी होगी। और इस सबके पश्चात् प्रस्तुत मन्दिर को ‘पंचायतन' का परिपूर्ण रूप देने के लिए अर्धमण्डप का निर्माण भी हुआ होगा। इस प्रकार यह सम्पूर्ण मन्दिर एक आकस्मिक और विचित्र संयोग के फलस्वरूप विभिन्न संयोजनाओं के द्वारा अस्तित्व में आया दीखता है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए हम इसके अंग-प्रत्यंग पर निर्माण-क्रम से विचार करेंगे।
महामण्डप : जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इस मन्दिर के महामण्डप का निर्माण एक स्वतन्त्र मन्दिर के रूप में हुआ था। इसका प्रथम कारण यह है कि इसका निर्माण कदाचित् चौथी शती में हुआ था जबकि गर्भगृह का, जैसा कि आगे कहेंगे, छठी शती में। महामण्डप को गुप्तकालीन कृति सिद्ध करने में वह शिलालेख (चित्र 49) (ज्ञानशिला) और तीर्थंकर मूर्ति (चित्र 50) पर्याप्त है जो यहाँ प्राप्त हई थीं। इसके मध्यवर्ती चार स्तम्भों के बीच, कछ वर्ष पूर्व तक एक वेदी थी, जिसमें उक्त अभिलेख जड़ा था। इस अभिलेख की लिपि यद्यपि अनेक भारोपीय लिपियों का मिश्रण है, तथापि इसमें अशोककालीन ब्राह्मी के लक्षण भी देखे जा सकते हैं।
___ गर्भगृह : गर्भगृह कदाचित् छठी शती में निर्मित हुआ था। गुप्तकाल के उत्तरार्ध में प्रचलित प्रायः सभी विशेषताएँ इसमें उपलब्ध होती हैं। इस समय तक शिखर का रूप इतना परिवर्तित और अलंकृत हो गया था कि वह गुर्जर-प्रतिहार और चन्देल-काल के शिखर का पूर्व रूप प्रतीत होता है। प्रस्तुत शिखर (चित्र 24 और 25) में यह तथ्य सरलता से दर्शनीय है। बाह्य भित्तियों की अलंकरण-विहीन योजना
और दोहरी कार्निस आदि विशेषताएँ भी इसे गुप्तकाल के उत्तरार्ध की कृति प्रमाणित करती हैं।
जहाँ तक इसके प्रवेश-द्वार (चित्र 18) का प्रश्न है वह अपेक्षाकृत अधिक विकसित और अलंकृत है, परन्तु वह जैसा कि उसके भीतरी वायें पक्ष पर उत्कीर्ण
1. दे.-चित्र संख्या 17। 2. 'इस अभिलेख की प्रथम सात पंक्तियों में वास्तव में विभिन्न वर्णमालाओं के नमूने समाविष्ट हैं,
जिनमें अधिकांश द्राविड़ तथा मौर्यकालीन ब्राह्मी भी समाविष्ट हैं, यद्यपि तुर्की और फारसी उसमें नहीं है।'-श्री दयाराम साहनी, ए. प्रो. रि., भाग दो, 1918, पृ. 10।
102 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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