________________
के अनुसार पंचायतन शैली को ही मन्दिर का पूर्णरूप माना गया है। जिनमें एक, दो या तीन अंग मिलते हैं, उनके विषय में विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं होता है।
अधिकांश मन्दिरों पर शिखर की संयोजना हुई है। कुछ लघु-मन्दिरों पर लघु-शिखर (गुमटी) निर्मित हुए हैं। कुछ मन्दिरों के शिखर अपने प्रारम्भिक स्वरूप से भिन्नता रखते हैं जो जीर्णोद्धार के परिचायक हैं। कुछ शिखर मन्दिरों के गर्भगृह या मण्डप पर न होकर अर्धमण्डप पर संयोजित किये गये हैं। जिन मन्दिरों पर शिखर नहीं हैं, उनकी छतें सपाट हैं। बड़े मन्दिरों की सपाट छतें मूलतः कई पाषाण-शिलाओं की संयोजना करके निर्मित की गयी थीं। कालान्तर में वे ध्वस्त हो गयीं, और अब उन्हें साधारण पाषाण-शिलाओं को सीमेण्ट से जोड़कर बना दिया गया है।
बहुत-सी ऐसी पाषाण-शिलाएँ यहाँ-वहाँ प्राप्त हुई हैं जैसी ऐहोल के गुप्तकालीन लाड़खाँ मन्दिर की छत पर आज भी देखी जा सकती हैं। मं. सं. 30 (चित्र 34) के मण्डप की छत अभी भी उसी प्रकार की शिलाप्रणालिकाओं द्वारा निर्मित देखी जा सकती है। अनुमान है कि एक-दो मन्दिरों की पूरी छत उसी प्रकार की रही होगी। दो लघु-मन्दिरों' की छतें एक-एक शिला द्वारा निर्मित की गयी हैं। इनकी तुलना न केवल छत की दृष्टि से अपितु दोहरी कार्निश, प्रवेश-द्वार और उन पर अंकित गंगा-यमुना आदि की दृष्टि से भी तिगवाँ के विष्णु-मन्दिर और पतौरा आदि के गुप्तकालीन मन्दिरों से की जा सकती है।
उक्त विशेषताओं के अतिरिक्त एक विशेषता ऐसी भी है, जो कुछ मन्दिरों को मन्दिर कम और निवास-स्थान अधिक प्रमाणित करती है। जैसा कि कहा जा चुका है देवगढ़ में साधुओं और भट्टारकों के लिए भी कुछ आवास-गृहों का निर्माण हुआ था, जो कालान्तर में मन्दिरों के रूप में परिणत कर लिये गये। इनके उदाहरण हो सकते हैं-म. सं. 2, 8, 14, 21 और 2712
4. देवगढ़ के जैन मन्दिर
अब हम यहाँ के कुछ विशिष्ट मन्दिरों का पृथक्-पृथक् अध्ययन करके ज्ञात करेंगे कि उनकी प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं। (1) मन्दिर संख्या 12
यह मन्दिर देवगढ़ में कई दृष्टियों से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। कला, शैली
1. दे.-लघुमन्दिर संख्या 6। 2. दे. चित्र संख्या 2, 13, 1) और 21 । 3. दे.-चित्र संख्या 16 से 25 तक।
स्थापत्य :: 101
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org