Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 28
________________ भुवणभाणुकेवलिचरियं तम्मि वणे आगंतूणं मुत्तूणं च छत्त-खग्गाई । वंदेइ जिणं राओ पयाहिणाओ अ दाऊणं ॥१३७।। थुणइ जिणं भत्तीए जो सुरकय हेमपंकयनिसण्णं । निम्मलनाणपईवं 'भवोअहिबुडंतजणदीवं ॥१३८॥ (कलापकम् ) प्रणतकामितदैवतशाखिने निखिलजन्तुहिताय शमात्मने । भुवनपद्मविबोधनभानवे भुवनभानु जिनाय नमोऽस्तु ते ॥१३९।। (संस्कृतम्) करुणारससायरवर! सुर-नरवइवंदिअक्कमो भयवं! । अवहर भवदुहदाहं जेणाहं पीलिओ बहुसो ॥१४०।। (प्राकृतम्) 'तुं मादा तुं तादो तुं नाधी मज्झ तुं गुरू भयवं!। ता तुं भवपासादो मिलिदो दुहिदं ममं रक्ख ॥१४१॥ (शौरसेनी) 'अपुलवलायञणिही अणगाले चत्तगालवे एश। शिलिअकलंकनलेशलकुलदीवे जयदि कस्टहले ॥१४२।। (मागधी) 'तेव ! पनतपतकमलो हितयातो जस्स तुं न वच्चेसि । तस्मृलसंति सतने लच्छीओ नसटकसटाओ ॥१४३।। (पैशाची) "सोलकलासंपुन्नउ जासु वयण समु चंदु । नमतउ भवसायर तरइ तुज्झ चलण मुणिइंद! ॥१४४।। (अपभ्रंशः) इअ छव्विहभासाहिं थुणिओ भावेण देउ मज्झ सुहं । सिरिभुवणभाणुकेवलिमुणीसरो धम्महंससरो(सरहंसो) ॥१४५|| संथुणिऊणमिअ जिणं हरिसेणं उवविसेइ मुणिपासे । इअ भणइ जो मुर्णिदं तुह जोगो पुण्णओ जाओ ॥१४६।। तुम्हाणं आगमणं जं मह देसम्मि सामि! संजायं । तिअसनई अलसाणं मज्झे तं आगया अज ॥१७॥ एसो देसो धन्नो धन्नं नयरं नरा य मह धन्ना । भवसयसहस्सदुलहो संपत्तो जेण इत्थ तुमं ॥१४८॥ जह पीऊसरसेणं तिसाउराणं हवेइ संतोसो । खीरघयखंडजोगा जह वा छुहिआण आणंदो ॥१४९।। जह वा बप्पीहाणं "तित्ती नहयलपडंतनीरेणं । अहवा जह चक्काणं करेइ सूरो दिणमुहम्मि ||१५०॥ १. भवोदधिमज्जज्जनद्वीपम् ॥ २. त्वं माता त्वं तातः त्वं नाथः मम त्वं गुरुः भगवन् ! । तत् त्वं भवपाशाद् मिलितः दुःखितं मां रक्ष ॥१४१॥ ३. अपूर्वलावण्यनिधिः अनगारः त्यक्तगौरवः एषः । श्रीअकलङ्कनरेश्वरकुलदीपो जयति कष्टहरः ॥१४२॥ ४. देव ! प्रणतपदकमलः हृदयात् यस्य त्वं न व्रजसि । तस्य उल्लसन्ति सदने लक्ष्म्यः नष्टकष्टाः ।।१४३।। ५. षोडशकलासम्पूर्णकम् यस्य वदनं चन्द्रसमम् । नमन् भवसागरं तरति तव चरणौ मुनीन्द्र ! ।।१४४।। ६. त्रिदशनदी गङ्गानदी || ७. तृप्तिः ॥ ८. चक्रवाकाणाम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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