Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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सिरिइंदहंसगणिविरइयं
जो मुच्छर लुढइ पडइ अकंदर 'सोअप अ विलवेइ । दुहिओ मग्गस्समओ धण-सयणाणं विओगाओ || १०७॥ तं नत्थि जं च दीणत्तणं गओ चिट्ठए इमो नेव । अइकट्ठे भ्रम भिक्खाए जो घइग्गामं || ४०८ || पsिहंति तस्स भिक्खालाहं लाहंत रायरिउराओ । जेणं पणंतराया विसमा सिद्धंतर भणिआ || ४०९ || दाणं लाहो भोगो उवभोगो तह य वीरिअं चेव । एएसिं पंचण्ड पडिसेहो अंतराएहिं ॥ ४१० ॥ *पायं पइषयमेलो 'महावयाहिं समावयंतीहिं । अइनिक्करुणमणाहि वेलाकूलं गओ कट्टं ॥ ४११ ॥
तत्थ य केणावि वणिअपुत्तत्तेण ववहारिणा टविओ । जो जाओ पुण किंचि वि सर्विचणो तस्स पासाओ ||१२|| जं च धणपिवासेसा पेरेइ कुणसु "धणज्जणोवाए । ववहारेउ भवंतो 'उवविसिऊणाऽऽवणेसु सयं ||४१३||
* रयणुक्कर - कणग- रजय- दुगुल्लवत्थाइअं अणेगविहं । कप्पास-लोह-' 'लक्खा गुलिया धन्नाई वणिउत्ते" ॥४१४॥
पेसेउ अवरदेसेसु कयाणगे भरिअ भूरिसगडाई । बालइ-रासह-करहाइवाहर तह पवत्तेसु ||४९५ || पूरेउ उत्तमुत्तमकयाणगापुण्णजाणवत्ताणि । जलहिम्मि तह गहिज्जउ "मंडविआपट्टयप्पमुहं ||४|१६|| किज्जउ अ धाउवाओ "सुकित्तिमकयक्कयाणगऽब्भासो सिद्धरसग्गहणत्थं बिलप्पवेसो अ पास ! ||४१७||
इवाइ साहु कहिअं पिए ! तप अन्नहा न य हवंति ! " सघरंगणेसु अ रयणरासीउ सुवण्णकूडाई ||४१८ || उबविट्ठी तात्र रयण-कणगाइअआवणेसु पारद्धो । ववहारविही वि परं कलिअं लाहंतरायण ||४१९|| अइ वेसवणस्स इमो हविज्ज पासम्मि संठिओ नेव । काणयकवडिआए लाहो चिंतिज्जए उ तया ॥४२०||
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१. शोचते ॥ २. मार्गश्रमतः ॥ ३. चेष्टते । ४. पञ्चान्तरायाः || ५. प्रायः प्रतिपदमेषः ।। ६. महापद्भिः समापतन्तीभिः ॥ ७. धनार्जनोपायान् ॥ ८. उपविश्य ॥ ९. रत्नोत्कर० ।। १०. लाक्षा ।। ११. वणिपुत्रान् ॥ १२. गृह्यताम् ॥ १३. मण्डपिकापट्टकप्रमुखम्, पट्टकाः शुल्कमण्डपिकादिपट्टकाः इत्यर्थः ।। १४. सुकृत्रिमकृतक्रयाणकाभ्यासः ।। १५. स्वगृहाङ्गणेषु ॥ १६. काणकपर्दिकायाः ||
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