Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 77
________________ सिरिइंदहंसगणिविरयं सामिअ ! मए निमंतिअमिह माणुस ! 'ठिजए तर जाव । अम्हाणं आवासे कायव्वं भोअणं ताव ||८४१ जेणुत्तं सोहणमेअं २कयमुत्तमगईइ हायव्वं । तब्भोअणं तओ सा 'सहलिअसमणोरहा जाया ॥८५२॥ पक्कन्न-सालिदालिप्पमुहेहिं नव्वनव्ववत्थूहिं । भुजेइ सा 'उबरई तेण समं पञ्चहं रमइ ।।८४३।। एगम्मि दिणे अप्पेइ कुंकुमाऽऽरत्तसुक्कपुप्फाणि । कंतस्स बीअपूराइअपुवफलाणि अ कुओ वि ||८४४॥ सा भासेइ अ 'सव्वावयासु भत्तीइ तोसिआ उ मए । पिअ ! तुज्झ दिति अंतरहत्थे ते 'पुव्वया सव्वे ।।८४५।। मह जो पणमेइ इमे पमोअओ "पुश्वए निअसिरम्मि । आरोवेइ अ तेसिं 'सेसाइअमित्थ भत्तीए ॥८४६।। को वि नरो जइ जंपइ तुज्झ पिआ एरिसा विगयसीला । सो पुण भणेइ अ तया हुँ जाणामि (अ) अहमिमं पि ॥८४७॥ पढमं चेव अओ मह ताव पियाए निवेइ सव्वं । इअ उत्तरं च कस्स वि न देइ 'वुग्गाहिओ ''जीइ ।।८४८।। अह अन्नदिणे परतत्तिवाहगेणं नरेण केणावि । सीहो भणिओ जो तुह पिहे सया भुंजए मिटुं ॥८४९।। दंसेमि तं च पुरिसं तुममागच्छसु गओ अ तेण समं । सगिहंगणम्मि दिट्ठो उवविठो सो तओ जेण ||८५०॥ अह आगंतूण जहावित्तं जो 'साविऊण सव्वं पि । पुच्छइ पिए। किमेअं परिसमसमंजसं ताव ? ॥८५१॥ तीए तओ अ वुत्तं हुँ परगिहभंजिलोअवयणेसु । लग्गो तुमं पि संपइ कूडविगप्पो कओ को वि ॥८५२।। दंसिस्ससि जेण जए बहूणि तुं माणुसाणि सरिसाणि । कत्थ वि मजन समाणा अवलोइरसह तए इत्थी ॥८५३।। तीए आलिंगणयं कुणमाणो तुं पडिस्ससि अणत्थे । निभच्छिऊण एवं अप्पं दंसेइ रु 3 सा ॥८५४॥ आगच्छंतो एसो निवारिओ उववई इमाइ तओ । सगिहम्मि भोअणाइअकजत्थं कवडपेडाए ॥८५५|| १. स्थीयते ॥ २. उत्तमगत्या भव्यरीत्या इत्यर्थः ॥ ३. सफलितस्वमनोरथा ॥ ४. उपपतिम् ॥ ५. सर्वा. सु ॥ ६. ते पूर्वनाः सर्वे ॥ ७. पूर्वजान् ॥ ८. शेषादिकम् भाषायाम् ' शेष ' ॥ ९. व्युग्राहितः॥१.. यया ।। ३१. श्रावयित्वा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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