Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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सिरिइंदहंसगणिविरइयं
उग्गा महोवसग्गा किज्जंता मणुअ-देव-तिरिएहिं । जेणं च सहिज्जते चालिज्जते न रोमाणि ॥१४७४॥ इअ अक्खलिअपयावस्स जस्स कालो गओ इमो बहुलो । सयलं मोहबलं बलवंतस्स पराहवंतस्स ॥१४७५।। अह 'खीणरीणनट्टप्पाएसु इमेसु पञ्चणीएसु । सम्मइंसणमंती सुपसन्नो जस्स संजाओ ॥१४७६।। यह सयागमो जस्स जलहिवेलाजलं व निच्च पि । किरिआकलावमाराहए अ सम्मं मुणिवयंसो ॥१४७७॥ सवयणकिरणप्पसरेण जेण सूरिअसमप्पयावेण । मोहतिमिरोहनासाउ कया भव्वा य सपगासा ॥१४७८।। पडिबोहिऊण एगे निअसीसा भव्वपाणिणो उकया । इअ सव्वपयारेहिं पुण्णुदओ पोसिओ जेण ॥१४७९॥ मुणिऊणं पज्जतसमयं च संलेहणं मुणी कुणइ । दव्वेणं भावेणं असारसंसारसुविरत्तो ॥१४८०॥ गीअस्थमुणीहिं सह सेलनिअंबे गओ अ सीहरहो। तत्थ सिलातलमेगं विलोइअं जेण अणवज्जं ॥१४८१।। तत्थ "कुसमओ संथारगो अ सन्जीकओ सयं जेण । तत्थ ठिी सव्वजिणे वंदइ सक्कथएणं जो ॥१.४८२।। ससिरठविअपाणिपुडो पवट्टमाणं जिणाहिवं नमइ । तत्तो निअगुरुरायं समणो गुरुभत्तिसंजुत्तो ॥१४८३।। तेसिं पासे पञ्चक्खाइ "वसुससंकपावठाणाई । पुव्वं विरओ वि अ जो चएइ अ चउविहमाहारं ॥१४८४॥ धम्मपडिबंधमेगं करेइ जो चत्तगत्तपांडबंधो । आलोइअपडिकंताईआरो होइ सुविसुद्धो ॥१४८५।। सुर-माणुस-तिरिअकओवसम्गसहणुजओ जई जाइ ।
पायवुवगमणनामाणसणेणं विमल झाणगओ ॥१४८६।। जाव चरममूसासं च पालिऊणमकलंकचारित्तं । कालं काऊण गओ समणो सुक्कसुरलोंगम्मि ॥१४८७।।
१. क्षीणरीणनष्टप्रायेषु ॥ २. सूर्यसमप्रतापेन ॥ ३. मोहतिमिरौघनाशात् ॥ ४. शैलनितम्बे ॥ ५. कुशमयः दर्भमयः ॥ ६. शकस्तवेन ॥ ७. अष्टादश ॥ ८. पादपोपगमननामानशनेन ॥
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