Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 121
________________ १०४ सिरिइंदहंसगणिविरइयं उग्गा महोवसग्गा किज्जंता मणुअ-देव-तिरिएहिं । जेणं च सहिज्जते चालिज्जते न रोमाणि ॥१४७४॥ इअ अक्खलिअपयावस्स जस्स कालो गओ इमो बहुलो । सयलं मोहबलं बलवंतस्स पराहवंतस्स ॥१४७५।। अह 'खीणरीणनट्टप्पाएसु इमेसु पञ्चणीएसु । सम्मइंसणमंती सुपसन्नो जस्स संजाओ ॥१४७६।। यह सयागमो जस्स जलहिवेलाजलं व निच्च पि । किरिआकलावमाराहए अ सम्मं मुणिवयंसो ॥१४७७॥ सवयणकिरणप्पसरेण जेण सूरिअसमप्पयावेण । मोहतिमिरोहनासाउ कया भव्वा य सपगासा ॥१४७८।। पडिबोहिऊण एगे निअसीसा भव्वपाणिणो उकया । इअ सव्वपयारेहिं पुण्णुदओ पोसिओ जेण ॥१४७९॥ मुणिऊणं पज्जतसमयं च संलेहणं मुणी कुणइ । दव्वेणं भावेणं असारसंसारसुविरत्तो ॥१४८०॥ गीअस्थमुणीहिं सह सेलनिअंबे गओ अ सीहरहो। तत्थ सिलातलमेगं विलोइअं जेण अणवज्जं ॥१४८१।। तत्थ "कुसमओ संथारगो अ सन्जीकओ सयं जेण । तत्थ ठिी सव्वजिणे वंदइ सक्कथएणं जो ॥१.४८२।। ससिरठविअपाणिपुडो पवट्टमाणं जिणाहिवं नमइ । तत्तो निअगुरुरायं समणो गुरुभत्तिसंजुत्तो ॥१४८३।। तेसिं पासे पञ्चक्खाइ "वसुससंकपावठाणाई । पुव्वं विरओ वि अ जो चएइ अ चउविहमाहारं ॥१४८४॥ धम्मपडिबंधमेगं करेइ जो चत्तगत्तपांडबंधो । आलोइअपडिकंताईआरो होइ सुविसुद्धो ॥१४८५।। सुर-माणुस-तिरिअकओवसम्गसहणुजओ जई जाइ । पायवुवगमणनामाणसणेणं विमल झाणगओ ॥१४८६।। जाव चरममूसासं च पालिऊणमकलंकचारित्तं । कालं काऊण गओ समणो सुक्कसुरलोंगम्मि ॥१४८७।। १. क्षीणरीणनष्टप्रायेषु ॥ २. सूर्यसमप्रतापेन ॥ ३. मोहतिमिरौघनाशात् ॥ ४. शैलनितम्बे ॥ ५. कुशमयः दर्भमयः ॥ ६. शकस्तवेन ॥ ७. अष्टादश ॥ ८. पादपोपगमननामानशनेन ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170