Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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सिरिइंदहंसगणिविरदयं
जेण कर्य इस्सरिअं 'आगाससमुद्दपुव्वलक्खाई । निकंटयं महामेहवुट्ठिपमुइअसयललोअं ॥१६४८॥ कुमरत्तणम्मि जस्स य गयाणि गयणदुगपुव्वलक्खाई। इअ सुरचमकरीओ करेइ जो रजरिद्धीओ ॥१६४९।। जिण्णुद्धारा जेणं विहाविआ ताव ठाणठाणेसु । 'निअअप्पुद्धारा पिव पहावगेणं जिणमयस्स ॥१६५०।। "जेणाहिणवा जिणवरपासाया कारिआ य निअदेसे। पइगामं पइनयरं 'जसपयरा व पयडीभूआ ॥१६५१।। रहजत्ताओ जेणं पयट्टिआओ अ नयरमज्झम्मि । विरहअमहाविभूईओ धम्मुजोआण सया ॥१६५२।। धम्मेण वडिओ जो जमेरिसा पाविआ महाभोगा । जेणावि वडिओ सो पहावणाहेउकिच्चेहिं ॥१६५३।। धम्मस्स य रायस्स य परुप्परं वट्टए अ उवयारो । जेसि समो अन्नो को वि दीसइ न लोअमज्झम्भि ॥१६५४।। पगय चउहसिदिणे कओववासो महानरेसो अ। रविअत्थमणगसमए पूपर जिणाहिवे देवे ॥१६५५॥ सत्तो रत्तिअपोसहगाही सज्झायभणणआसत्तो । सुहभावो बलिभूवो अपमत्तो निग्गमइ रत्तिं ॥१६५६।। रयणिविरामे रणो विसेसओ चरणधम्मसिन्नमिणं । सन्निहि संजायं जस्स य चिंतेइ रायवरो ॥१६५७॥ मज्झ अहो ! मूढत्तं माणुसजम्म इमं च लहिऊणं । विसयाभिलासगिद्धे ण मए हो ! हारिअं ताव ॥१६५८॥ बहुसायरोवमाइअकालहवंतेगभोगसुक्खेहिं । जीआणं जइ न तित्ती ता किं होही "निभोगेहिं ? ॥१६५९।। “तत्तविआरेणं जइ विलोगसे एस लोगमज्झम्मि । ता किमवि नत्थि रम्मं धम्म मोत्तूण रे जीव ! ॥१६६०॥ जेसु असारेसु वि भावेसु मुहा तुज्झ रमइ सारमई । ते वि अणिचा वटुंति नट्टवट्टिअपयत्थ व्व ॥१६६।। तथाहि
१. चत्वारिंशत् २. विंशतिपूर्वलक्षाणि ॥३. निजात्मोद्धारा इव ॥ ४. अभिनवप्राणाः-नूतना इत्यर्थः ॥ ५. यशःप्रकारा इव ॥ ६. निर्गमयति ॥ ७. नृभोगैः ॥ ८. तत्त्वविचारेण ॥
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