Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 120
________________ भुवणभाणुकेवलिचरियं - १०३ जेण सुअं वित्थरओ धम्मसरूवं सुगुरुसमीवम्मि । जणणी-जणगाणुन्नाइ जेण गहिआ पुणो दिक्खा ॥१४६०॥ तत्तो सम्वो जं अणुचरेइ चारित्तधम्मपरिवारो । . भिसमणुरत्ता सव्वविरई 'तिजयरजदा जाया ॥१४६१।। सब्बोहो न मुंचइ खणमवि पासं च सम्मदंसणयं । सच्वंगेण परिणमइ परिधेइ पवयणकवयं जो ॥१४६२।। संतोस सिरत्ताणं धरमाणो भावणंगिआकलिओ। अपमायमहागयमारुहेइ समणो बलेण जुओ ॥१४६३॥ 'वसुससिसहस्ससीलंगपवरतलवग्गिआवरिअमज्झो । उवचिअपुण्णोदयदंडनायगं जो ठवेइ पुरो ॥१४६४॥ पइसमयउल्लसंतसुहऽज्झवसायभडकोडिकयसेवो । मोहबलेणं च समं विसमरणं कुणइ सीहरहो ॥१४६५॥ तत्थ य ताडेइ महंतमोहचरडहिअयं समणसूरो । तिक्खगअमूढभावाभिहाणकुंतग्गओ सिग्धं ॥१४६६।। दसण-नाणग-संजमबाणतिगेणं च हणइ समकालं । जो 'रागपंचमुह-दोसगइंदमहंतमंडलिए ॥१४६७॥ नीसेसपाणिकरुणापरिणामसरेण जो विदारेइ । हिंसाअज्झवसायाभिहाणबलवंतसामंतं ॥१४६८॥ *सञ्चवयणमुग्गर घारण छिंदइ असञ्चभडसीसं । सोअअसिणा य चोरिअचोरं चूरेइ चारुतवो ॥१४६९।। "मेहुणसलहो जेणं दहिओ बंभाभिहाणदीवेण । निद्दलइ निरीहत्ताऽसणिणा उ परिग्गहरिउं जो ॥१४७०।। उवसमसलिलाऽऽसारेणं जेण कोहाणलो अ अवणीओ। मद्दवदंडेणं जो पाडेइ अ माण सुरसत्तुं ॥१४७१॥ 'अन्जवसीरेणं जो मायाभूमि विदारए विउरो । फोडेइ फुडं लोहतडागं संतुट्ठिलट्ठीए ॥१४७२॥ देहअसारत्तणचिंतणाइ-सारकरवालवग्गेण । दुजयपरीसहरिऊ पराजिणइ जो महासत्तो ॥१४७३।। १. त्रिजगद्राज्यदा ॥ २. प्रवचनकवचम् ॥ ३. अष्टादश ॥ ४. रागपञ्चमुख-द्वेषगजेन्द्रमहामाण्डलिकान् ॥ ५. सत्यवचनमुद्रघातेन ॥ ६. शौचासिना ॥ ७. मैथुनशलभः शलभः-पतङ्गः ॥ ८. सुरशत्रम्-दानवम् ॥ ९. आर्जवसीरेण सीरम-हलम् ॥ १०. विदुरः ज्ञानी ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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