Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text
________________
सिरिइंदहंसगणिविरहरा
भत्ति च पुव्वयाणं कुणसु तुमं हवइ भव्वमेव जहा । तुमए तहा पिए ! कारिअव्वमह गच्छए एसा ॥८७२॥ तेण समं रमिअ इमा भासइ महिसी अ पेसिअव्वा सा । कहइ पिअस्स पहाए पसाइआ दुक्खओ पिउणो ||८७॥ महिसी कुओ वि अन्जाऽऽगमिस्सए कुसलमन्नमवि सव्वं । तुझ करिस्संति पुणो पिउणो पिअ ! तोसिअमणा ते ||८७३।। रयणीमुहम्मि पसरतेसु तिमिरउक्करेसु गिहबारे । पविसेइ इमा महिसी 'रिकंती मसिसरिसवण्णा ॥७॥ तुट्ठो सीहो जाओ अ पच्चओ तीइ गाढमणुरत्तो ।
उवजाइआणि सा विअ कारह सिरमुंडणं जेण ||८७५॥ इअ तक्खणेण विसएगरागरूवेण रागसीहेण । सवसीकओ अ सीहो विडंबिओ भूरिसो तीइ ॥८७६॥ देव-गुरु-तत्तपमुहं 'चत्ता चिट्ठइ पिएगचित्तो जो। जस्स य कयावि उत्तं विवेगवंतेण केणाधि ।।८७७॥ पडिवन्नो अस्थि तए दसणसेवा-अभिग्गही स कहं १ । तप्पुरओ जेणुत्तं "सुल्लंठं वयणमरुईए ॥८७८।। सम्मईसणमेअं भजाए भवमित्थ विन्ने । सम्मइंसणमवरं विगप्पिअं धुत्तपुरिसेहिं ॥८७९।। इच्चाइ जंपमाणं जं अपमाणं कुणंतयं तत्तं । अवलोईऊण नट्ठो सम्मइंसणमहामंती ॥८८०॥ मिच्छादसणमंती तो पविट्ठो सुलद्धपत्थावो । संहरिओ मरणेणं नीओ एगिदिआइसु जो ॥८८१॥ धरिओ तेसु वि जो चिरकालं तेहिं विचित्तसत्तूहिं । अन्नय पुणरवि जणिओ मणुस्सखित्तम्मि कम्मेण ॥८८२॥ जिणदाससिविणो जो धूआरूवेण आगओं तत्थ । तीए जिणसिरिनाम ठविअं पिउणा पमोएण ॥८८३।। जिणदासस्स कुडुंब सबालवुड्ढं पि *दसणोवे । जिणसिरिधूआ वि तहा सम्मईसणजुआ जाया ॥८८४|| भोमपुरम्मि पसंतेण सा विमलनासिट्टिणा ताव । दाहिणकरेण गहिआ सड्ढेणं बहुधणड्ढेणं ॥८८५||
१. रिकमाणा ॥ २. उपयाचितानि ॥. ३. त्यक्त्वा ।। ४. सोल्लप्ठम् ।। ५. दर्शनोपेतं सम्यग्दर्शनयुक्तमित्यर्थः ॥ ६. श्राद्धेन ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170