Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 45
________________ ૨૮ सिरिइंदहंसगणिविरइयं यत: तम्हा ते के निउणा 'वासगया ? इअ विमुक्कसंकेहिं । चिंतिजउ निअकजं तुम्हेहिं सत्तिमंतेहिं ॥३७९।। जं पुणरत्तं तुमए धूआ एअस्स धम्मबुद्धि त्ति । तं पिअतमस्स अप्पा विस्सरिओ सव्वहा मन्ने ॥३८॥ अइरुद्दचोरदसणहवंतदढभीइभंतचित्तस्स ।। घोडयमारहिअस्स वि कस्स वि विस्सरइ जह 'अस्सो ॥३८॥ जं अम्हाणमवि इमा धूआ विजइ अधम्मबुद्धि त्ति । 'जा तारिसरूवगुणा तदहिअलायण्णपुण्णा य ॥३८२|| सेवंति 'जगंति सया जं 'निअपण्हिप्पहारपहयाणि । एआए सोहग्गं वणिजइ सग्गलोए वि ॥३८३॥ सम्मईसणधूआ अम्हसुआचत्तलोअवग्गेहिं . केहि वि संसेविजइ "अंकुसवक्कयरवक्केहिं ॥३८४॥ तेण वराईए कि तीए मज्झ पुरओ गुणुचारो ? । तम्हा किं बहुणा पिअ! जइ अ भवंतो भयभंतो ॥३८५।। तत्तो तुमं तु म पेसेसु तहिं जेण तुज्झ धूआए । भिच्चत्तमहं एअं वरायमाणेमि पिअराय ! ॥३८६।। गहिअगलग्गाहमिमं वाविञ्च खणेण तस्स रंकस्स । पढमाणुहूअभूमि दंसेमि दुहोहखाणिमहं ॥३८७|| जाणेमि सामिअ ! इमं जुत्तं जुबईण णेव बहु वत्तुं । सोहंति सलजाओ जाओ मिअभासिणीओ अ ॥३८८।। 'धिट्टत्तं पुण तासिं अवगुणमाणेइ अप्पमाणमिणं । भासिअमेवं सामिअ ! अम्हे हिं . अत्तिजुत्ताहिं ॥३८९।। खंतव्वी सव्यो वि अ जंपंतीए अयाणमाणीए । मह अवराहो रिउचंदराहुसरिसेण कंतेण ॥३०॥ कायव्वो उ पसाओ धरिअव्यो को वि नाह! न 'विसाओ । अह सो मिच्छादसणपिओ भणेइ सुपसन्नमणो ॥३९॥ दइए! मोहनरिंदाणुगओ लोगो सुलोअणपहाणो । पुरिसस्स पिए! एरिसकन लज्जं जणेइ पुणो ॥३९२।। १. वासका इत्यर्थः ॥ २. अतिरौद्रचोरदर्शनभवदृढभीतिभ्रान्तचित्तस्य ॥ ३. अवः ॥ ४. या तादृशरूपगुणातदधिकलावण्यपूर्णा च ॥ ५. जगन्ति भुवनानि ॥ ६. निजपाष्णिप्रहार प्रहतानि ॥ ७. अङ्कुशवत् वक्रतरवाक्यैःबहुवक्रवाद तैरित्यर्थः ॥ ८. व्यावृत्त्य ।। ९. धृष्टत्वम्-धार्यम् ॥ १०. आतियक्ताभिः ॥ ११. विषादः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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