Book Title: Bhuvanabhanukevalicariya
Author(s): Indahansagani, Ramnikvijay Gani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 61
________________ १४ Jain Education International सिरिइंदहंसगणिविरइयं ताहि नीओ जो 'भागवयाइ असत्थसन्निहाणम्मि | जस्स य तया समीवं च सा सुन्नया सिग्धं ||६०६ || भागवयाश्वयणमवगच्छइ सव्यं जहाकहिअमेसो । तभासिअं च काउ भृतिमं पावमज्जेइ ||६०७|| पुणरवि निवट्टिओ जो धरिओ एगिंदिआइठाणेसु । जाव अनंतं कालं तेहिं वरं वहतेहि ||६०८|| अह कमनरिंदेणं विचिति अन्नया इअ अहो ! जो । चारित धम्मसेणाप वे समज्जावि न लहेइ ||६०९ || जम्हा बलवंता मज्झ बंधवा अह तहा मुणामि अहं । तेसिं जहा अबल्या हवेइ सव्वेसिमचिरेण ||६१०|| परमेवं किज्जते तेसि सरीरमवचयमुवेइ धुवं । जर (ह) अम्ह सरीराओ न संति भिन्ना कयावि इमे ॥ ६११|| तेसि सरीरविणासे परमट्ठेणं खओ उ मज्झेव । संपज्जइ तेण अहं कट्टमहो ! किं करेमि ? अहो ! ||६१२|| जइ वा पाताणं पडिवन्नं जं हवेइ तं होउ । जम्हा सत्थे एवं सुणिज्जए लोअमज्झम्मि ||६१३ || चंदो कलंकमप्पगमुदही अरिंग विसं सिवो वा वि । न कयाइ चपइ जहा तहा महंता सपडिवन्नं ||६१४|| उवगारकारिणी जे नरा न ते अप्पणी गणंति खयं । * दीवदसाउ पगासं जओ जणंति तणुदाहेणं ॥ ६१५ || चारित्तधम्मपमुहा जइ वि परमसत्तणो इमे अम्हं | विणासगरा इअ किं इमेसिमुवगारकरणेणं ? ||६६६ || इववि न चितिअब्वं जम्हा गयमच्छरोवगारिसु जं । सदओ ता किं परमवराहिसु सुहिओ जइ स संतो ||६१७॥ लच्छी हरिआ जेणं विमद्दिओ अद्दिणोदही हरिणा । सो तस्स देइ ठाणं न मच्छरो जेण धीराणं ॥ ६१८ || जइ वा मह सुहपक्खस्स पोसणं ते कुणंति रिउणो वि । निचं 'सवित्थरं अम्ह सरूवं ते चिअ मुणंति ॥६१९|| तत्तो वि "मं सम्मं लोए 'पक्खावणं इमे निंति । जाणावंत पसिद्धिं भुवणतिअयम्मि मज्झ पुणो ||६२० || १. भागवतादिकशास्त्रसन्निधाने ॥ २. त्यजति ॥ ३. परमार्थेन ॥ ४. उपकृतिराभसिकतया क्षितिमपि गणवन्ति नात्मनो गुणिनः । जनयन्ति हि प्रकाशं दीपदशाः स्वाङ्गदाहेन ॥१॥ भ. भा. पृ. ३०२ ॥ ५. दीपदशाः ॥ १. विनाशकरा ॥ ७. सविस्तरम् ॥ ८. माम् ॥ ९. प्रख्यापनं प्रसिद्धिम् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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