Book Title: Arsh Vishva
Author(s): Priyam
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 8
________________ चिंतन : पर्दा रखना या नहीं, यह महिला की इच्छा की बात है। पर्दा रखने या न रखने पर उसे बाध्य नहीं किया जा सकता । जहा तक सामाजिक विकास का प्रश्न है, तो इस के लिये हमें पहले विकास की परिभाषा निश्चित करनी होगी । एक बाजू प्राचीन भारतीय संस्कृति की प्रेमी ऐसी लाखों-करोड़ों महिलायें है, जो अपनी इच्छा से पर्दा प्रथा का आदर करती है। और दुसरी ओर अन्य महिलायें है, कि जिन्होंने अपनी इच्छा से वस्त्र प्रथा को भी शिथिल कर दिया है । पर्दा-प्रथा में जी रही महिलायें सफर में एवं जाहिर स्थानों पर अपने आप को सुरक्षित महसूस करती है। उनका वैवाहिक जीवन सुखी व संतुष्ट होता है। न उनके पति कभी उन्हें शंका की दृष्टि से देखते है, न ही उन के पति के प्रेम व सम्मान में कमी आती है। दुसरी ओर जिन्होंने पर्दा-प्रथा का आदर नहीं किया, वे सफर में व जाहिरस्थानो में अपने आप को असुरक्षित महसूस करती है। यदि परीक्षण किया जाये, तो ज्ञात होगा की बलात्कारों की महत्तम घटनायें बेपर्दा महिलाओं के साथ हो रही है। नारी उद्धार के जो आगेवान महोदय आज भी पर्दा-प्रथा का विरोध कर रहे है, वे वस्त्र-स्वातन्त्र्य के नाम पर उस संस्कृति का खून कर रहे है, जो हजारो सालो से नारी का रक्षाकवच बनी रही है, उन्हें यह बात पर चिंतन करने की आवश्यकता है, कि क्या हम नारी का विकास कर रहे है या विनाश? जब स्थिति यह है, तब हमें इस बात का गौरव के साथ स्वीकार करना चाहिये, कि हमारी संस्कृति अपने आप में विकसित है। सुरक्षा, शुद्ध प्रेम, सुखी पारिवारिक जीवन, संतोष - यह सब इसी संस्कृति की छाया में संभवित है । इस सत्य को समज कर आज पश्चिमी देशों की जनता भारतीय संस्कृति की ओर अभिमुख हो रही है, तब हम हमारी संस्कृति से विमुख हो, यह न केवल मूर्खता है, अपि तु आत्मघात भी है। इस स्थिति में विद्यालयों में यह सीखाना कि 'पर्दा-प्रथा से सामाजिक विकास में रुकावट आती है' इस का क्या अर्थ हो सकता है व उसका क्यां परिणाम हो सकता है, वह सुज्ञ वाचक स्वयं समज सकते है। उपसंहार मेरा भारत महान । भारत देश इस लिये महान नहीं है कि वह 'मेरा' है। किन्तु इस लिये महान है कि उस के धर्म, संस्कृति व नैतिक मूल्यों का सारी दुनिया में जवाब नहीं है। यदि भारत को अपनी महानता की सुरक्षा करनी है, तो उसे अपने मूलभूत धर्मों, गौरवपूर्ण संस्कृति और एक तंदुरस्त व स्वस्थ-सुखी समाज के लिये प्राणवायु जैसे नैतिक मूल्यों की रक्षा करनी चाहिये और उसके लिये पाठ्यपुस्तकों में इस उद्देश्य को सिद्ध करे ऐसी शिक्षा को ही स्थान देना चाहिये।

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