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अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष - 14, अंक - 4, 2002, 41 - 43 जैन संस्कृति और पर्यावरण
- डा. विनोद कुमार तिवारी *
इक्कीसवीं सदी के मानव के समक्ष अपनी दैनिक मूलभूत समस्याओं के अलावा जो सबसे भयंकर और अनिवार्य समस्या उठ खड़ी हुई है, वह है पर्यावरण संरक्षण की समस्या। प्रकृति की वस्तुओं के प्रति मानव समुदाय की उपेक्षा सैकड़ों वर्षों से अनवरत रूप से चलती आ रही थी और वर्तमान काल में अब इसकी विकरालता स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ने लगी है। विश्व के लोगों ने अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रकृति का भरपूर दोहन किया है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि आज सम्पूर्ण विश्व को प्रदुषण की विकराल समस्या से जूझना पड़ रहा है। पिछली शताब्दियों में हुए वैज्ञानिक, औद्योगिक क्रान्ति की होड़, भौतिक आनन्द, तेजी से बढ़ती आबादी, जंगलों की लगातार कटाई, खेतों में जरूरत से अधिक पैदावार बढ़ाने के प्रयत्न और निरीह प्राणियों की निर्मम हत्या ने प्राकृतिक वातावरण को छिन्न-भिन्न कर इसे दूषित बना दिया है, जिससे प्राकृतिक संतुलन डगमगाने लगा है। आज विकास के नाम पर भूमि, जल और वायु प्रदूषित किये जा रहे हैं तथा अन्तरिक्ष तक में प्रदूषण फैलाया जा रहा है। इस परिस्थिति में आज प्राणी जगत के संपूर्ण अस्तित्व पर सीधा संकट उपस्थित हो गया है।
यद्यपि बीसवीं सदी में पश्चिम के वैज्ञानिकों और विचारकों ने प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण पर ध्यान दिया तथा इसके लिए कछ उपाय भी बतलाएँ, पर पिछले कई में उपभोक्ता संस्कृति और भौतिकवादी विचारधारा का जिस तेजी से विकास हुआ है, उससे विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का हास होता गया और आज मानव उसके भयावह परिणामों के भुक्तभोगी हो रहे हैं। अब इससे बचने के उपाय विश्व के दूसरे देशों के पास नहीं हैं, पर यदि हम भारतीय संस्कृति का अध्ययन करें, तो जैन और बौद्ध साहित्य इस तरह की प्रेरणा देते हैं जिससे हम विश्व के समक्ष उत्पन्न इस त्रासदी का सामना करते हुए उससे बच सकें। अब सभी इस बात की गंभीरता को समझने लगे हैं कि पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा के लिए धार्मिक एवं नैतिक विश्वासों तथा आस्थाओं पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। जहां वैदिक धर्म में प्रकृति के अंगों, क्रमश: क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर की बात कहकर इसके प्रति आस्था उत्पन्न की गई है, वहीं बौद्ध धर्म में लोगों को प्रकृति के प्रति उदार रहने का संदेश दिया गया है। पर जैन धर्म एवं इसमें वर्णित जीवन शैली पर विचार करने से यह स्पष्ट पता चलता है कि इसने प्राकृतिक वस्तुओं के संरक्षण पर सबसे अधिक ध्यान दिया है तथा इसके लिए तथ्यपरक मार्गों के अनुसरण करने की बात भी विस्तार से बतलाई है।
जैन धर्म मूल रूप से पांच सिद्धांतों पर आधारित है - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य। इन्हीं मार्गों पर चलकर भौतिक तथा आध्यात्मिक रूप से प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा की जा सकती है। इसके अलावा जैन तीर्थकरों एवं श्रमणों ने स्वयं एक ऐसा आदर्श जीवन प्रस्तुत किया है, जो उनके दया भाव एवं प्रकृति प्रेम को दर्शाता है। जैन धर्म में अहिंसा को सबसे अधिक महत्व देते हुए प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की रक्षा करने का संदेश दिया गया है। इस मत में जीव के पांच प्रकार निर्धारित किये
* रीडर एवं अध्यक्ष, इतिहास विभाग, यू.आर. कॉलेज, रोसड़ा - 848210 (समस्तीपुर) बिहार।
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