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अर्हत् वचन
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर,
वर्ष 14, अंक 4, 2002, 77-80
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जैन दर्शन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
रामजीत जैन एडवोकेट *
मानव उत्पत्ति कैसे हुई, कहाँ से हुई, किस स्थान में और किस रूप में हुई इन बातों के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है किन्तु विभिन्न मतमतान्तरों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निर्बाध निकाला जा सकता है कि पृथ्वी तल पर मानव के सर्वप्रथम अस्तित्व के जिस समय से प्रमाण मिलते हैं तभी से भारतवर्ष में वह विद्यमान था। अतः यह तथ्य निःसंदेह स्पष्ट है कि मानवीय इतिहास के प्रारम्भ काल से ही भारत भूमि मनुष्य की लीला भूमि रही है। मानव और उसकी आदिम प्राग्ऐतिहासिक सभ्यता के विकास का युग भूतात्विकों एवं प्रागऐतिहासज्ञों की भाषा में चौथा काल कहलाता है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति कही जाती है। इस संस्कृति में दो महान धाराओं का मिलाप है श्रमण और वैदिक दोनों धाराओं की अपनी अपनी संस्कृति रही है। वैदिक संस्कृति 'ब्रह्मा' की पृष्ठभूमि से उद्भूत हुई है जबकि श्रमण संस्कृति 'सम' शब्द के विविध रूपों और अर्थों पर आधारित है। वैदिक संस्कृति में परतंत्रता, ईश्वरावलम्बन और क्रियाकाण्ड की धरम प्रवृत्ति देखी जाती है, जबकि जैन संस्कृति स्वातन्त्र्य, स्वावलम्बन, विशुद्ध एवं आत्मा की सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास करती है।
श्रम शब्द की व्याख्या में ही श्रमण संस्कृति का आदर्श निहित है जो श्रम करता है, तपस्या करता है और अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करता है, वही श्रमण कहलाता है। अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करने वाले और पुरुषार्थ द्वारा आत्म- सिद्धि करने वाले क्षत्रिय होते हैं। इसलिये कहना होगा कि श्रमण संस्कृति पुरुषार्थ क्षत्रिय संस्कृति रही है।
मैं जीना चाहता हूँ। आप जीना चाहते है। हमारे आस पास का जीव जगत जीना चाहता है। सब की जीजीविषा में तालमेल बिठाने वाली जैन परम्परा का व्यवस्थित इतिहास है। लोग नहीं जानते कि इस परम्परा का ताना बाना तीर्थकरों के साथ बुना हुआ है। तीर्थकर 24 हैं। प्रत्येक तीर्थकर के शासन में साधु साध्वी श्रावक श्राविका के तीर्थ स्थापित होते हैं। तीर्थ स्थापना के समय सबसे पहले गणधरों को मुनि दीक्षा दी जाती है! गणधर विभिन्न गणों के रूप में तीर्थकर की श्रमण सम्पदा के सम्यक् वाहक होते
है तीर्थकर प्रवचन करते है गणधर उनसे आगम की रचना करते हैं।
जैन परम्परा के प्रारंभ कर्ता अयोध्या प्रदेश के नामि सुत ऋषभदेव थे जब तक भारत रहेगा तब तक ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत का नाम अमर रहेगा। संस्कृत की ऋष धातु (क्रिया) है जिसका अपभ्रंश अंग्रेजी का रिसर्च है अर्थात् अनुसंधान है ऋषभदेव ने मानवीय अस्तित्व का अनुसंधान किया कि बिना तप और अहिंसा के मानवता का अस्तित्व स्थिर और स्थित नहीं रह सकता। अहिंसा और तप ही मानव की संजीवनी शक्ति है। ऋषभ से तात्पर्य अनुसंधान और प्रगति उसकी 'मा' = आमा (प्रकाश) को देने वाला आर्ष व्यक्तित्व ऋषभ । शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ को ऋषभ कहा जाता है।
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ऋषभदेव ने पाषाणकालीन प्रकृति पर आधारित असम्य युग का अंत करके ज्ञान विज्ञान संयुक्त कर्म प्रधान मानवी सभ्यता को भूतल पर सर्वप्रथम ॐ नमः (प्रारम्भ किया। उन्होंने असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्यारूप लौकिक षट्कर्मों का तथा देवपूजा, गुरु भक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान रूप धार्मिक षटकर्मों का उपदेश दिया। राज्य व्यवस्था की, समाज संगठन किया और मानव सभ्यता के विकास के बीज बोये। उन्हीं से भारतीय क्षत्रियों के प्राचीनतम इक्ष्वाकुवंश का प्रारंभ हुआ राजकाज के साथ उद्योग, सहयोग और
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