Book Title: Arhat Vachan 2002 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 104
________________ है कि वे समाधि स्थल के प्रतीक होते हैं और कभी - कभी उनके अन्दर बौद्ध भिक्षुओं की अवशेष अस्थियाँ/राख आदि हो सकते हैं या कि कभी - कभी पाण्डुलिपियाँ भी। जैन स्तूप समाधि स्थान नहीं पूजा के मन्दिर होते हैं। इनमें पूज्य संकेत रहते हैं। अमरावती के जैन स्तूप (जिसे बौद्ध स्तूप बतलाया जाता है) में माल्यधर ओर मन्दिर स्पष्ट दिखाई देते हैं। म्यूनिच के इस स्तूप को तीन भागों में अलग किया जा सकता है और वह चलित मन्दिर की प्रस्तुति करता है। ऊपर का शीर्ष मध्य के चतुर्मुखी की कुंडी में स्थित हो जाता है और वह चतुर्मुख नीचे की चतुर्मुखी में स्थित हो जाता है किन्तु अवशेष, अस्थियाँ आदि रखने योग्य उसमें कोई स्थान नहीं है। नीचे के चतुर्मुख में चारों दिशाओं में चार तीर्थकर पद्मासित हैं। सभी (नग्न) दिगम्बर मुद्राएँ हैं अत: बौद्ध स्तूप होने का प्रश्न ही नहीं उठता। ठीक उसी प्रकार जैसा कि अशोक स्तम्भ शीर्ष (सारनाथ) को जैन की जगह बौद्ध दर्शाया गया है। स्पष्ट है कि उसके चक्र और चार पशु सामान्य पशु नहीं तीर्थकरों के संकेत हैं। उचित होगा कि संग्रहालयों के संरक्षक सही - सही जानकारी दर्शकों को देकर हमारे पुरातत्वीय वैभव को सही प्रस्तुत करें। * C/o. मलैया ट्रेक्टर्स स्टेशन रोड़, सागर निदेशक मंडल (शोध समिति) - सन् 2001 - 2002 अध्यक्ष सचिव प्रो. ए.ए. अब्बासी डॉ. अनुपम जैन पूर्व कुलपति, स. प्राध्यापक - गणित, बी-417, सुदामा नगर, शा. होल्कर स्वशासी विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर - 452009 'ज्ञान छाया', डी - 14, सुदामा नगर, फोन 0731 - 2482894 इन्दौर-452009 फोन : 0731 - (नि.) 2787790 (का.) 2545421 सदस्य 1. प्रो. आर. आर. नांदगांवकर 3. प्रो. सुरेशचन्द्र अग्रवाल पूर्व कुलपति, प्राध्यापक एवं अध्यक्ष - गणित, चन्द्रदीप अपार्टमेन्ट, निकालस मन्दिर, इतवारी, ए-2, चौधरी चरणसिंह वि. वि. परिसर, नागपुर - 440002 मेरठ - 250 404 (उ.प्र.) फोन: 0712-2763186 फोन : 0121-2762526 2. प्रो. नलिन के. शास्त्री डॉ. एन.पी. जैन कुलसचिव - बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर पूर्व राजदूत, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रायबरेली रोड़, ई-50, साकेत, लखनऊ (उ.प्र.) इन्दौर-452001 फोन : 0522-2440822 फोन : 0731-2561273 5. डॉ. प्रकाशचन्द जैन 91/1, गली नं. 3, तिलकनगर, इन्दौर - 452001 फोन : 0731-2490619 100 अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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