Book Title: Arhat Vachan 2002 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 103
________________ टिप्पणी- 7 अर्हत्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर संग्रहालयों में जैन प्रतीकों की भ्रामक प्रस्तुतियाँ ० डॉ. स्नेहरानी जैन संग्रहालयों में प्रस्तुत सामग्री की विवेचना / परिचय, विशेष विद्वानों से विचार विमर्श और आधार साक्ष्य को देखकर ही की जाती है। कुछ समय पूर्व मुझे पांडिचेरी का संग्रहालय देखने का मौका मिला। मेरा अभियान पाण्डुलिपियों की खोज था । फलस्वरूप मैं वहाँ अरविन्द आश्रम के समीप स्थित फ्रैंच लायब्रेरी में प्राचीन साहित्य को खोजने पहुँची । पाण्डुलिपियों वाले सेक्शन में देखने से ऐसा संकेत मिला कि यूरोप स्थित पुस्तकालयों में वहाँ के विद्वानों के कार्यों में झाँककर ही कुछ सही जानकारी मिलेगी। एक दिन वहीं पीछे स्थित पुरातत्वीय संग्रहालय को देखने के लिये मैं नीचे चली गई। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था । द्वार पर एक अनाम स्तूप खड़ा था जिसके बारे में पूछने पर वहाँ तैनात महिला ने उसे 'शिवलिंग' बतलाया। मैंने जब आधार पूछा तो वह स्पष्टीकरण नहीं दे सकी। मैंने उससे आग्रह किया कि वह शिवलिंग नहीं जैन स्तूप है। मात्र कुछेक दिन पहले उसे उत्खनन द्वारा पांडिचेरी से लगभग 22 किलोमीटर दूर पश्चिम स्थित त्रिभुवनी से प्राप्त करके लाया गया है। इसमें नीचे चतुष्कोणीय आधार है जो संसार की 4 गतियों को स्पष्ट दर्शाता है! इन 4 गतियों से ऊपर अष्ट कर्म दर्शाये गये हैं। ये उसी पत्थर से बना बीच का भाग है। शीर्ष पर अष्ट कर्मों से मुक्त हुई 'पुरुष आत्मा' का एक खंब दर्शाया गया है जो लिंग के आकार से भिन्न है। वास्तव में आत्मा तो अदृष्ट है। सिद्धत्व में दाखिला लेते ही यह मुक्ति का एक मार्ग बतलाती है। वह मार्ग है अष्ट कर्मों की निर्जरा जो तप कर तीर्थंकर करते हैं। शिवलिंग की स्थिति एक योनि कुण्ड पर दर्शायी जाती है जो यहाँ नदारद है। अतः यह जैन स्तूप ही है। कदाचित शिवलिंग की कल्पना जैन स्तूपों को देखकर ही हुई है। इसमें शीर्ष की समानता जिंतूर जिनमन्दिर में रखी चतुर्मुखी स्तूप से मेल खाती है। प्रांगण में वहीं पास में बैठी दो अर्धपद्मासित मानव मुद्राएँ हैं जो कायोत्सर्ग दर्शाती हैं। दोनों के शीर्ष गायब हैं। मात्र शीर्ष रहित होकर भी अर्ध पद्मासित मुद्राएँ उचित तप को समर्थन देती हैं। एक के पीचे कमलासन रखा है। ऐसी प्रतीत होता है कि ये मुद्राऐं उस प्राचीन काल में क्षुल्लकों की ही रही हैं जिनके शीर्ष कालान्तर में तोड दिये गये हैं। गौतम बुद्ध अथवा उनके शिष्यों की ये प्रतीत नहीं होती क्योंकि बुद्ध की ध्यान मुद्रा न की सलवटें उनके गात्र को भिन्न प्रकार से ढंकती है। के पट से मेल खाती हैं। अतः इन्हें भी बौद्ध मुद्रा बतलाना भ्रामक है विशेष कर संग्रहालयों द्वारा । पाण्डिचेरी में नेमिनाथ काल में जैन धर्म रहा, ज्ञात होता है। बाद में पार्श्वनाथ काल में भी यह रहा । बौद्ध प्रभावना का संकेत संभव हो सकता है किन्तु उपरोक्त बिम्ब जैनत्व दर्शाते हैं। केवल भिन्न है, उनकी चादर जबकि ये दोनों मुद्राएँ क्षुल्लकों पाण्डिचेरी के समीप ही ओटी के प्राचीन मन्दिर पर निर्मित एक नया जैन मन्दिर है। जिसमें आदिनाथ भगवान की एक पाषाण मुद्रा लेपित खड़ी है। वहीं से लगभग 3 कि.मी. दूर एक दूसरे जैन मन्दिर में पीतल की भव्य जिनमुद्राएँ हैं। ये दोनों मन्दिर अति प्राचीन माने जाते हैं । यूरोप की यात्रा के दौरान म्यूनिच के फोल्कर कुंडे म्यूजियम में भी इस प्रकार गया पटना से प्राप्त एक जैन स्तूप को बौद्ध स्तूप दर्शाया गया है। बौद्ध स्तूपों की विशेषता अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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