Book Title: Arhat Vachan 2002 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 109
________________ शोध प्रबन्ध सारांश अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर जैन रामायणों में राम का स्वरूप - श्रीमती अनुपमा छाजेड़* श्रीमती अनुपमा छाजेड़ ने देवी अहिल्या वि.वि. के शोध केन्द्र कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर में पंजीकृत होकर 'जैन रामायणों में राम का स्वरूप' विषय पर प्रो. पुरुषोत्तम दुबे के मार्गदर्शन में हिन्दी विषय में Ph.D. उपाधि हेतु अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया। दिनांक 19.12.2002 को कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ केन्द्र पर ही उनकी मौखिक परीक्षा भी सम्पन्न हुई। सम्पादक रामकथा प्राचीनकाल से ही जैन साहित्यकारों को प्रिय रही है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा कन्नड़ आदि क्षेत्रीय भाषाओं में रामकथा पर अनेक जैन ग्रन्थ उपलब्ध हैं। राम का एक नाम पद्म भी था। यही नाम जैन साहित्यकारों को अधिक प्रिय लगा। इसी आधार पर विमलसूरि ने प्राकृत में पउमचरियं, रविषेण ने संस्कृत में पद्मचरितम् तथा स्वयंभू ने अपभ्रंश में पउमचरिउ की रचना की। जैन साहित्य/आगम अत्यधिक विशाल है। इनके चार अनुयोग हैं - (1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग तथा (4) द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग के अन्तर्गत 63 महान शलाका पुरुषों के पावन-चरित्रों का वर्णन कथात्मक ढंग से होता है। इनमें 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण व 9 बलभद्र - इस प्रकार त्रिषष्ठि महान पुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित होता है। इस वर्णन का उद्देश्य संसार में पाप की निकृष्टता, पुण्य की श्रेष्ठता तथा व्रत चारित्र सहित मोक्ष मार्ग पर आरूढ हो मोक्ष प्राप्ति का विवरण देना ही होता है। 'राम' इसी प्रथमानुयोग में वर्णित बलभद्र के रूप में जैन साहित्य में वर्णित हैं। वे एक महान एवं मोक्षगामी महापुरुष हैं। जैन मान्यता के अनुसार रामचन्द्र भगवान मुनिसुव्रत के काल में हुए हैं। इनका चरित्र आदर्शमयी था। इनके आदर्श चरित्र को लेकर जैन धर्म में जैन रामायण या ग्रन्थों की रचना तीसरी शती ई. से निरन्तर सोलहवीं शती ई. तक होती रही है। इनकी प्रमुख दो धारायें थीं अर्थात् इनके दो अलग - अलग रूप थे - एक विमलसूरि के 'पउमचरियं' और रविषेण के 'पद्मचरित' की तथा दूसरी गुणभद्र के 'उत्तरपुराण' की। दिगम्बर परम्परा में तीर्थकर आदि के चरित्रों का प्राचीन संकलन नामावली के रूप में हमें प्राकृत भाषा के ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में मिलता है। विमलसूरि ने 'पउमचरियं' के उपोद्घात में लिखा है कि 'मैं, जो नामावली में निबद्ध है तथा आचार्य परम्परा से आगत है, ऐसा समस्त पद्मचरित आनुपूर्वी के अनुसार संक्षेप से कहता हूँ।' इससे यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि उन्होंने नामावली को मुख्याधार मानकर 'पउमचरिय' की रचना की। इसके अतिरिक्त आचार्य स्वयंभू कृत अपभ्रंश भाषा का पउमचरिउ तथा नागचन्द्र कृत कर्नाटक पद्मनारायण जैन परम्परा के श्रेष्ठ रामचरित हैं जो तिलोयपण्णत्ती पर आधारित __ दूसरी धारा गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण की है। आचार्य गुणभद्र आचार्य जिनसेन के शिष्य थे। जिनसेन के विषय में 'कविपरमेश्वरनिगदतगद्वकथामतढकं पुरोश्चिरितम्' इस उल्लेख से यह स्पष्ट किया है कि आदिपुराण की रचना पूर्ण करने के पूर्व ही वे दिवंगत हो गये थे, अत: अवशिष्ट आदिपुराण तथा उत्तरपुराण की रचना उनके प्रबुद्ध शिष्य गुणभद्र ने की। बहुत कुछ संभव है कि गुणभद्र ने भी उत्तरपुराण की रचना करते समय कवि अर्हत वचन, 14 (4), 2002 Jain Education International 105 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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