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अत्यन्त लोकप्रिय चिन्ह दृष्टिगोचर होता है। सड़कें और गलियों तक स्वस्तिकाकार मिलती
हैं।
डा. हेरास के अनुसार मोहनजोदड़ों का प्राचीन नाम नन्दूर था अर्थात् मकर देश था और नन्दूर लिपि मनुष्य की सर्वप्रथम लिपि यह सभ्यता मनुष्य की भूतल पर सर्वप्रथम सभ्यता थी। डा. हेरास इस सभ्यता को द्रविड़ीय ही मानते हैं इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य है कि 'मकर' नवें तीर्थकर पुष्पदंत का लांछन है। प्रो. एस. श्रीकृष्ण शास्त्री का कहना है कि दिगम्बर धर्म, योग मार्ग, वृषभ आदि विभिन्न लांछनों की पूजा आदि बातों के कारण प्राचीन सिन्धु सभ्यता जैन धर्म के साथ अद्भुत सादृश्य रखती हैं अतः वह मूलतः अनार्य अथवा कम से कम अवैदिक तो है ही।
जैन अनुश्रुति के अध्ययन से पता चलता है कि दसवें तीर्थकर शीतलनाथ के उपरान्त सर्वप्रथम ब्राह्मणों ने श्रमण परम्परा से अपना सम्बन्ध विच्छेद करके अपनी पृथक ब्राह्मण संस्कृति एवं वैदिक धर्म को जन्म दिया था इस काल में सामाजिक और राजनैतिक संघर्ष का जो सिलसिला चला यह राम रावण युद्ध तक अवाध गति से चलता रहा। राम कथा श्रमणों और ब्राह्मणों में समान रूप से प्रचलित होने के बावजूद आपसी मतभेद को मुखरित होने से नहीं बचा सकी। ब्राह्मणों के लिये राक्षसों के विनाश, सीता विवाह, संघर्ष, शौर्य प्रदर्शन आदि दिलचस्पी का विषय है, जबकि श्रमणों की दिलचस्पी शील, संयम, आज्ञा पालन आदि में रही है, जिससे युद्ध भूमि में भी योद्धा अहिंसा का वरण कर लेता है। हिंसा बनाम अहिंसा के चलते जीवन और जीविका में अन्तर्विरोध बढ़ा जो कालान्तर में मार्जार मूषक की भाँति विद्वेष रखने वाला उदाहरण बन गया।
श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने 'भारतीय की रूपरेखा' में इक्ष्वाकु से पाण्डवों तक हुई 95 पीढ़ियों का वर्णन किया है। उसमें एक से 40 पीढ़ी तक सतयुग, 41 से 65 पीढ़ी तक त्रेता 66 से 95 वीं पीढ़ी तक द्वापर माना है। उनकी स्थापना के अनुसार 2950 से 2300 ई. पूर्व तक सतयुग 2300 से 1700 ई. पूर्व तक त्रेता और 1700 से 1425 ई. पूर्व तक द्वापर रहा। फिर कलियुग प्रारम्भ हुआ त्रेता में राम और द्वापर में कृष्ण सर्वाधिक चर्चित व्यक्तितत्व रहे । कृष्ण के समय 1424 ई. पू. महाभारत युद्ध हुआ, जिसमें 283 राजाओं सहित 53 लाख 12 हजार 840 (18 अक्षोहिणी) सैनिक मारे गये। तदनन्तर 56 करोड़ यदुवंश भी आपस में लड़ मरे। तब जैनों के 22 वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि नव निर्माण के लिये मैदान में उतरे ।
तोरण द्वार तक पहुँचने से पूर्व उन्हें एक बाड़े में बन्द पशुओं का आर्त्तनाद सुनाई पड़ा तो उन्हें बचाने की भावना से बिना ब्याहे लौट गये। उनके उपदेश से माँसाहार त्यागने की होड़ लग गई। करोड़ों भारतीयों को निरामिषमोजी बनाने का श्रेय अरिष्टनेमि को जाता है। युद्ध में मारे गये लोगों की विधवाओं को सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देने, अनाथ बच्चों को संरक्षित करने, वृद्ध माता- पिताओं को सहारा देने, पराजितों का आत्मविश्वास लौटाने और विजयी लोगों का उन्माद नियंत्रित करने में द्वारिका से पुरी तक की अरिष्ट नेमि की पद यात्रायें प्रभावी रहीं मरने पर स्वर्ग और जीतने पर राज्य भोगने वाली मानसिकता बदली एवं संहार के साधन सृजन में लगे आर्य विचारकों ने प्राग्वैदिक दर्शन को अपनाया। उसके बाद वैदिक, अवैदिक आर्य अनार्य परम्पराओं ने आपस में मिलकर हिन्दुत्व का रूप लिया।
इक्ष्वाकु की 33 वीं पीढ़ी में अयोध्या नरेश हरिशन्द्र हुये स्वप्न में उन्होंने अपना राज्य महर्षि विश्वामित्र को दे दिया और दक्षिणा के लिये अपनी रानी और राजकुमार के साथ आकर काशी के बाजार में आकर बिके। बिकने से मिलने वाली दक्षिणा लेने वाले ऋषि का हाथ नहीं काँपा । पीढी दर पीढ़ी कही जाने वाली इस कथा को सुनकर ई.पू.
अर्हत् वचन, 14 (4), 2002
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