Book Title: Arhat Vachan 2002 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 97
________________ पर तत्काल प्रभाव होकर मन शान्ति अनुभव करने लगता है। प्राणमयी शक्ति एवं मन मानों एक ही सिक्के के दो पहलू के समान होने से मानवी विकारों का कुप्रभाव कम होने लगता है और मन शनै: शनै: शान्त एवं प्रेममय बनने लगता है। __इस कल्याणकारी वातावरण से शरीर एवं मन पर होने वाले इष्ट परिणाम प्राप्ति हेतु हमें चाहिये कि हम अग्निहोत्र समाप्ति के पश्चात् ताम्रपात्र के निकट अधिक से अधिक समय तक बैठे रहें। त्वचा के लक्षावधि रन्ध्रों (छिद्रों) से यह ऊर्जा शरीर की असंख्य नाड़ियों का शुद्धिकरण करते - करते शरीर में स्थित दस चक्रों तक पहुँचती है तथा शरीर की विविध व्यवस्थाओं (Systems) में व्याप्त असन्तुलन एवं अव्यवस्था को धीरे - धीरे समाप्त करने लगती है, साथ ही वायुमण्डल का संतुलन भी ठीक हो जाता है। धारणा एवं मौन की प्रक्रिया इससे लाभान्वित होने से हम ध्यानावस्था की ओर अग्रसर होने लगते हैं। 200 मीटर की परिधि में स्थित वनस्पति की सक्ष्म काया इस ऊर्जा को ग्रहण करने हेतु क्षणमात्र में अग्निकुण्ड की ओर आगे बढ़ती है। पालत् प्राणी, पक्षी भी इस दिव्य क्षण की आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं एवं स्वास्थ्य के लिये हानिकारक जीवाणु, रोगाणु वहाँ से पलायन कर जाते हैं। प्राणमय ऊर्जा, श्वसन संस्था, रक्ताभिसरण संस्था, पाचन संस्था, मज्जा संस्था, प्रजोत्पादन संस्था, नाडी व्यवस्था की सूक्ष्म संरचना आदि को चैतन्यमय, पुष्ट एवं निरोग बनाती है। इसके कारण मज्जर पेशियों के नवीनीकरण की प्रकिया व हड्डी, माँस, खुन आदि पेशियों का विकास होता है। अग्निहोत्र वातावरण में वनस्पतियों को जीवनदान मिलता है, गमलों में लगे पौधों का अच्छा विकास होता है ऐसा अनुभव है। इसी कारण से देशी, विदेशी कृषक अपनी खेती को समृद्ध बनाने हेतु अग्निहोत्र प्रक्रिया की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। अग्निहोत्र वातावरण में बोयी गई साग - सब्जियाँ सेवन करने से अनेक रोगों का निवारण होने लगता है। अग्निहोत्र प्रक्रिया के साथ अग्निहोत्र भस्म का भी रोग नाश करने, मिट्टी का कस बढ़ाने तथा कम्पोस्ट खाद की प्रक्रिया को प्रभावी बनाने में उपयोग किया जा सकता है। कपड़े से छने अग्निहोत्र भस्म के अग्निहोत्र के समय गाय के घी के साथ चुटकी भर मात्रा में सेवन करने से अनेक बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। गाय के घी में भस्म मिलाकर बनाये गये मल्हम का उपयोग त्वचा रोग निवारण का प्रभावी इलाज है। पश्चिमी वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अग्निहोत्र के यह अनाकलनीय परिणाम स्पन्दात्मक प्रतिध्वनि (रेझोन्स) के सिद्धान्तों के कारण होते हैं। अग्निहोत्र भरम के सूक्ष्मकणों से निरन्तर शक्तिशाली ऊर्जा निरन्तर उत्सर्जित होती रहती है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय भस्मकणों में स्थित ऊर्जा बार - बार कृति प्रवण (एक्टिवेट) होते रहने से भस्म की परिणामकारकता चिरन्तन बनी रहती है। अग्निहोत्र के प्रणेता श्री बसंत परांजपे जी को विश्वास है कि अग्निहोत्र ही एकमात्र रास्ता है जिससे विश्व अहिंसक खेती की ओर अग्रसर होगा और विश्व का पर्यावरण ठीक किया जा सकेगा और इससे विश्वशांति लाई जा सकती है, विश्व को बचाया जा सकता है। इस आन्दोलन में भारत विश्व का प्रतिनिधित्व करेगा। * 'मनकमल', 104, नेमीनगर, इन्दौर - 452009 (श्री परांजपे कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ में चर्चा हेतु पधारे थे, उनके आगमन के समय के चित्र कवर - 3 पर दृष्टव्य है। -सम्पादक) प्राप्त - 25.09.2002 अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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