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8 वीं शताब्दी में काशी के राजकुमार पार्श्वनाथ का हृदय बैचेन हो गया। वह सोचने लगा कि कैसे ऋषि हैं जो योग्य अयोग्य, उचित - अनुचित का भेद नहीं समझते। वह कैसा जात्याभिमानी समाज है जो सत्यवादी का सहारा बनने हेतु अन्त्यज जितना त्याग करने से डरता है ? पार्श्वनाथ ने दंभ और पाखंड के खिलाफ मोर्चा खोला। तब यक्ष समर्थकों ने कमठ तापस के नेतृत्व में ऐसा माहौल खड़ा किया कि काशी से अमिनिष्क्रमण करना पड़ा। इस घटना से पूर्व काशी श्रमण संस्कृति का केन्द्र रहा है।
पार्श्वनाथ का समय अनार्य क्षेत्रों में घूमने, नागाओं से मिलने, पिछड़ी जातियों का विश्वास जीतने में लगा। काश्मीर से कन्याकुमारी तक और कलिङ्ग से लेकर कच्छ तक उनकी यात्रा रही बंगाल, बिहार और उडीसा में उनका प्रभाव रहा सराक, सदमोम, रंगिया आदि जातियाँ हाल तक उन्हें लाखों की संख्या में अपना कुल देवता मानती रही हैं। कहा जाता है कि ते तिब्बत भी गए । श्रमण नेता के रूप में उनके इस प्रवास का व्यापक असर हुआ। इस कारण श्रमण संस्कृति का विस्तार भारत से अधिक भारत से बाहर देखा गया। जिसमें सारा एशिया ही मध्यपूर्व और भारत को छोड़कर इस क्षेत्र में आ गया। अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और पूर्वीद्वीप समूह के प्राचीन धर्म भी श्रमण धर्म से बहुत प्रभावित पाये जाते हैं।
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पार्श्वनाथ के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में अपेक्षित शोध नहीं हुआ है, लेकिन बुद्ध और महावीर से पूर्व उनका प्रभाव क्षेत्र कितना फैल गया था, यह बौद्ध साहित्य से जाना जा सकता है। इसमें जैन धर्म के एक ऐसे गौरवमय साक्ष्य की ओर संकेत किया है जिसका पता स्वयं जैन धर्मानुयाययों को नहीं है। पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, देवी देवता सहित जितने जीवन के तल हैं, उन सभी को संवेदना भाव संक्रान्त करने वाले 24 वें तीर्थकर श्रमण महावीर भगवान हुये बहुपत्नी प्रथा, दास दासियों की खरीद बिक्री, पशु-पक्षियों के प्रति होने वाली क्रूरता तथा धार्मिक क्रिया काण्डों के विरूद्ध जनमत निर्माण करने हेतु उन्होंने क्या नहीं किया? इस युग के महापुरुषों में सर्वाधिक उल्लेखनीय स्थान बुद्ध के समकालीन वर्धमान महावीर को था। स्वयं बुद्ध उनके तेज से प्रभावित थे और उनका आदर करते थे। श्रमण परम्परा में उसी धर्म का पुनः उद्धार, प्रचार एवं संस्कार करने के लिये अंतिम तीर्थकर के रूप में महावीर का जन्म हुआ था। उन्होंने स्व पुरुषार्थ द्वारा अपनी आत्मा को चरम शिखर पर पहुँचा दिया। जैन धर्म का जो कुछ वर्तमान रूप है तथा उसके गत ढाई सहस्र वर्षों का जो कुछ इतिहास एवं संस्कृति है, उस सबका सर्वाधिक श्रेय महावीर को ही है।
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बैर के स्थान पर मित्रता करना, अमंगल के स्थान पर मंगल करना अशान्ति के स्थान पर शान्ति स्थापित करना, विषमता के स्थान पर समता करना और संहार के स्थान पर सृजन का वातावरण बनाना ही जैनों का इष्ट रहा है जो परम्परागम्य से अधिक पराक्रमगम्य है, जो शास्त्रगम्य से अधिक सदाचार गम्य है, संयम और सहिष्णुता गम्य है, जिसमें हिंसा की कोई किंचित मात्र स्वीकृति नहीं है जिस प्रकार परिवार प्रेम के बन्धन से बंधा है, उसी तरह तथा कथित सम्यसमाज में राष्ट्र के नाम से जाना जाने वाला सम्य समाज भी इसी बन्धन से बंधा हुआ है। बात सिर्फ इतनी ही है कि वे अहिंसा के सिद्धान्त को स्वीकार करें वह तभी स्वीकार कर पाएगें, जब हमारी निष्ठा बोलेगी।
सन्दर्भ :
1 जैन साहित्य का इतिहास, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द शास्त्री, पृ. 5357
2. पिता के पत्र पुत्री के नाम, जवाहरलाल नेहरू, पृ. 49
3 भारतीय श्रमण संस्कृति, जवाहिरलाल जैन, पृ. 8
4. मन्मथ भाग 1, गणपति शंकर, पृ.. 409
प्राप्त: 3.9.2000
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अर्हत् वचन, 14 (4), 2002
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