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योग की संगति बिठाने के कारण ऋषभदेव का इतिहास में प्रथम राजा, प्रथम मुनि, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थकर और प्रथम धर्म चक्रवर्ती के रूप में स्थान है। वे जिस काल में हुए, इतिहास उस अनन्त अतीत की धूल भी नहीं छू सकता। लोक को लौकिक एवं पारलौकिक उपदेश देकर उन्होंने निस्पृह, निरीह, योग मार्ग अपनाया और कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया।
उनके पुत्र सम्राट भरत चक्रवर्ती ने सर्वप्रथम सम्पूर्ण भारत को राजनैतिक एक सूत्रता में बाँधने का प्रयत्न किया। उन्हीं के नाम से हमारे देश का नाम भारतवर्ष कहलाया और प्राचीन आर्यों का भारतवंश चला। ऋषभ के एक अन्य पुत्र का नाम द्रविड़ था जिन्हें उत्तरकालीन द्राविड़ो का पूर्वज माना जाता है। संभव है किसी विद्याधर कन्या से विवाह करके विद्याधरों के देश में जा बसे हों और उनके नेता बने हो. जिससे कालान्तर में वे द्रविड़ कहलाए। भरत के पुत्र अर्ककीर्ति से सूर्यवंश, सोमप्रभ से सोमवंश तथा एक अन्य वंशज से कुरुवंश चला, ऐसी मान्यतायें हैं।
ऋषभ द्वारा उपदेशित यह अहिंसामय सरल धर्म उस काल में सम्भवत: ऋषभ धर्म, आर्हत धर्म, मग्ग या मार्ग अथवा मुक्ति मार्ग कहलाया। ऋषभ के उपरान्त आने वाले अजितनाथ आदि विभिन्न 23 तीर्थकरों ने इस संस्कृति का पोषण किया और उक्त सदाचार प्रधान योग धर्म का पुन: पुन: प्रचार किया।
प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव प्राग्वैदिक युग में हो। दूसरे अजितनाथ से नवम् पुष्पदन्त तीर्थकर का समय सिन्धु घाटी सभ्यता काल माना जाता है। सिन्धु घाटी के प्राचीन निवासी कृषक और व्यापारी थे। उनकी उच्च सामाजिक व्यवस्था उनके द्वारा सुनियोजित और अच्छीरीति से निर्मित नगरों से परिलक्षित होती है। वे अनेक प्रकार के बर्तन बनाते थे। सोना, चाँदी और हाथी दाँत के जेवर बनाते थे। जौ, गेहूँ और कपास की खेती होती थी। कातना और बुनना उत्तम एवं उन्नत दशा में था। मोहनजोदड़ों निवासी योग की प्रणालियों से परिचित थे। उत्खनन् में प्राप्त मुद्रा जैन योगियों की तपस्या से विशेष रूप में मिलती है। हडप्पा में मिली मूर्ति को श्री रामचन्द्रन जैसे पुरातत्वविद प्रथम तीर्थकर की मूर्ति ही मानते हैं।' मोहनजोदडों और हडप्पा संस्कृतियों से जिन प्राग्वैदिक लोगों का सम्बन्ध रहा उन्हें व्रात्य, नाग, यक्ष, राक्षस, द्रविड़ आदि कहा जाता रहा है। पं. जवाहरलाल नेहरू का मत है कि हिन्दुस्तान की सबसे पुरानी कौम, जिसका हाल हमें मालूम है, द्रविड़ है। उसकी एक अलग जबान थी। द्रविड़ दूसरी जाति वालों के साथ व्यापार आदि किया करते थे। सर ज्होन मार्शल ने भी माना है कि सिन्धु सभ्यता आर्यों की वैदिक सभ्यता से बिल्कुल भिन्न थी, तथा उससे प्राचीन थी। उसका विनाश आक्रान्त आर्यों की हिंसक प्रवृत्ति के कारण हुआ, ऐसा अनुमान है। ऐसा प्रतीत होता है कि तीसरे तीर्थकर सम्भवनाथ के समय में इस प्राचीन सभ्यता का प्रारंभ हुआ। संभवनाथ का विशिष्ट लांछन अश्व है और सिन्ध देश चिरकाल तक अपने सैन्धव अश्वों के लिये प्रख्यात् है।
'ऋषभ' शब्द का अर्थ वृषभ है और वृषभ जैन ऋषभदेव का लांछन है। सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में वृषभ युक्त कायोत्सर्ग योगियों की मूर्तियाँ अंकित हैं। ऋषभ या वृषभ का अर्थ धर्म भी है शायद इसीलिये कि लोक में धर्म सर्वप्रथम तीर्थकर ऋषभ के रूप में प्रगट, प्रख्यात हुआ है। प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार न केवल सिन्धु घाटी के धर्म को जैन धर्म से सम्बंधित मानते हैं वरन् वहाँ से प्राप्त एक मुद्रा नं. 449 पर तो उन्होंने 'जिनेश्वरः' (जिन इस्सर:) शब्द भी अंकित रहा बताया है और जैन आम्नाय की 'श्री, ह्रीं क्लीं' आदि देवियों की मान्यता भी वहाँ रही बतायी है।
वहाँ से नागफण के छत्र से युक्त योगी मूर्तियाँ भी प्राप्त हई हैं जो सातवें तीर्थकर सुपार्श्व की हैं। इनका लांछन स्वस्तिक है और तत्कालीन सिन्धु घाटी में स्वस्तिक एक
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अर्हत् वचन, 14 (4), 2002
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