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निमित्त ज्योतिष, व्याकरण व संख्या विज्ञान ( गणित ) आदि विषयों पर भी पूर्ण अधिकार था। 'धवला' में इन सभी विषयों का समावेश दृष्टिगोचर होता है । षट्खंडागम का प्रमुख विषय करणानुयोग होने पर भी गणित विषय की बहुलता के कारण इसे गणितानुयोग भी कहा जाता है। अत: जैन गणित के विशेष अध्येताओं के लिए धवला टीका अति उपयोगी व महत्वपूर्ण है।
कुछ आचार्यों ने अपनी कृतियों में आचार्य वीरसेन को स्मरण करते हुए उन्हें नमन किया है।
"प्रसिद्ध सिद्धांत नमस्तिमाली, समस्तवैयाकरणाधिराजः ।
गुणाकरस्तार्किक चक्रवर्ती, प्रवादिसिंहोवर वीरसेन ॥" धवला प्रशस्ति
वीरसेनाचार्य प्रसिद्ध षट्खंडादिक सिद्धांतों को प्रकाशित करने वाले सूर्य, सभी वैयाकरणों के अधिपति, गुणों की खान तार्किक चक्रवर्ती तथा प्रवादीरूप गजों के लिए सिंह के समान
है।
" श्री वीरसेन इत्यान्त भट्टारक प्रथुपथः सः नः पुनातु पूतात्मा वादिवृंदारको मुनिः । लोकवित्वं कवित्वंचस्थित भट्टारकेद्वयम् वाग्मिता वाग्मिनो यस्यवाचा वाचस्पतेरपि ॥ सिद्धांतोपनिबन्धानाम् विघातुर्पदगुरोश्चिरम, मम्मनः सरसि स्थेयान्मृदुपाद कुशेशयम् । धवलामारतीं तस्य कीर्तिं च शुचिनिर्मलम्, धवलीकृतानि निश्शेष - भुतनांतान् नमाम्यहम् ॥” अर्थात् अपनी वाणी से वृहस्पति को भी पराजित करने वाले भट्टारक लोकवित एवं कवित्व आदि गुणों से युक्त सिद्धांत आगम उपनिबंधों के विधाता श्री वीरसेन गुरु के चरण कमल मेरे हृदय रूप सरोवर में सदैव विराजमान रहें चंद्रमा के धवल प्रकाशवत शुचि एवं निर्मल कीर्तियुक्त धवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन को मैं नमस्कार करता
"
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श्रुत सिद्धांतों का ज्ञान व्याख्यानरूप में भी गुरुपरम्परा से प्रवाहित होता रहा था। इस श्रृंखला में मुनि शुभनंदि एवं रविनंदि को भी आगम का विशेष ज्ञान था उनके प्रमुख शिष्य बप्पदेव गुरु ने भी आचार्यों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर षट्खंडागम के प्रथम पांच खंडों पर साठ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृतभाषा में "व्याख्या प्रज्ञप्ति" नामक टीका लिखी थी तथा उन्होंने बाद में छटवें खंड पर भी बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका की रचना की थी। आचार्य धरसेन के समकालीन आचार्य गुणधर भी अंग व पूर्वी के एक देश के ज्ञाता थे। इन्होंने पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे प्राभृत के आधार पर " कषायप्राभृत" ग्रंथ की रचना की थी। आचार्य नागहस्ति के समकालीन आचार्य यतिवृषभ ने कषाय प्राभृत पर छह हजार वृत्ति सूत्रों की रचना की थी जैन वांग्मय में जो स्थान षट्खंडागम का है वही स्थान कषाय प्राभृत को भी प्राप्त है। वीरसेनाचार्य ने भी कषाय प्राभृत की टीका लिखना प्रारंभ किया था किन्तु बीस हजार श्लोक लिखने के पश्चात उनका निधन हो गया। बाद में उनके प्रमुख शिष्य आचार्य जिनसेन ने चालीस हजार श्लोक और लिखकर यह टीका पूर्ण की थी। कषाय प्राभृत की "जयधवला" नामक यह टीका ही वर्तमान में उपलब्ध है। जयधवला टीका में चूर्णि व सूत्रों द्वारा कषायप्राभृत में प्रतिपादित विषयों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत है ग्रंथ की भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है।
आचार्य भूतबलि ने षट्खंडागम के अंतिम खंड " महाबंध " की रचना अत्यंत विस्तारपूर्वक, चालीस हजार श्लोकों में पूर्ण की थी। षट्खंडागम के अंतिम खंड की एक मात्र उपलब्ध यह टीका ही 'महाधवला" के नाम से प्रसिद्ध है "महाधवल" के शाब्दिक अर्थ अत्यंत निर्मल के अनुरूप इसमें षट्खंडागम के महाबंध अधिकार में वर्णित चतुर्विध बंधों की विशद एवं स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत है ।
धवला, जयधवला एवं महाधवला की कन्नड़ी भाषा में ताडपत्रों पर अंकित प्रतियां
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अर्हत् वचन, 14 (4), 2002
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