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वर्ष - 14, अंक - 4, 2002, 73 - 76 अर्हत् वचन
) सराक लोक कला की सांस्कृतिक धरोहर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
-डॉ. अभयप्रकाश जैन*
संस्कृति किसी क्षेत्र प्रदेश विशेष की सीमा में सीमित नहीं होती। निरन्तर प्रगतिशील मानव - जीवन प्रकृति और मानव - समाज के जिन-जिन असंख्य प्रवाहों, प्रभावों और संस्कारों से प्रेरित, प्रभावित और संस्कृत होता रहता है, उन सबके सामूहिक स्वरूप को ही हम आज संस्कृति की संज्ञा से सम्बोधित करते हैं। यही विरासत सराक संस्कृति पर लागू होती है। सराक जाति जैन संस्कृति की पक्षधर है ये प्रभाव और संस्कार किसी एक निश्चित काल अथवा किसी एक निश्चित क्षेत्र के नहीं होते। आज सराक संस्कृति के चिन्ह प्रतीकादि वहां के लोक व्यवहार और साहित्य और लोक कला परम्परा में दृष्टिगत होते हैं। यह सराक संस्कृति की संवेदनशीलता, सुसंस्कार और उसकी अर्जित अस्मिता का जीता-जागता प्रमाण है। परम्पराएं अनवरत चलती हैं, भले इनका स्वरूप बदल गया हो। यही कारण है सराक संस्कृति और लोक जीवन तत्कालीन समाज की झांकी आज भी बिहार, उड़ीसा, बंगाल के अंचलों में देखने को मिल जाती है। आर्थिक रूप से सराक समाज के गांव काफी पिछड़े हैं फिर भी मूल योजना में मांडने की कला एवं चित्रों में भाव व्यंजना के अनोखे एवं अद्भुत सौन्दर्यशाली उदाहरण मिलते हैं। लोक कला शैली में जो सराक महिलाएं चित्र बनाती हैं उनमें कुछ कथात्मक दृश्य, चित्र पटल पर विविध आकृतियां यद्यपि दूसरे से स्वतत्र रूप से चित्रित होती हैं। परन्तु भाव - भंगिमा द्वारा परस्पर जुड़ी हुई होती हैं। भगवान महावीर को अभिषेक के लिये ले जाती हुई महिलाएं हाथियों पर शोभायमान हैं, जन्माभिषेक पर देवों द्वारा रत्नों की वर्षा, त्रिशला मां के सोलह सपने, शोभायात्रा की सुविस्तीर्ण रचना में एकात्मक भाव के अविकल आयोजन की अद्भुत छटा है। बिहार, उड़ीसा, बंगाल की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था में सराक स्त्रियां ही हमारी समृद्ध लोक कला की धरोहर को संरक्षित करके रख पायी है। इस कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलनी चाहिए, इस ओर कदम उठाए जाना चाहिए।
आपका प्रश्न होगा कि सराक आर्यों के आगमन से त्रस्त हुए और संस्कृति को ध्वस्त किया गया तब कुछ समूह अपनी आदिम संस्कृति को कैसे बचाये रख सके? कई समूह सफलतापूर्वक सामाजिक संविलियन का विरोध करते रहे। इस विरोध की कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी। अपनी सांस्कृतिक विरासत और अस्मिता को बचाये रखने के लिये उन्हें नव विकसित सांस्कृतिक केन्द्रों से दूर वनों और पर्वतों की शरण लेनी पड़ी। इस एकान्त में सराक प्रजाति ने अपनी जीवन शैली की विशिष्टता को बचाये रखा। धीरे-धीरे उन पर सांस्कृतिक और धार्मिक दबाव बढ़ते गए। उनमें से कुछ हिन्दू बन गए, कुछ हठधर्मी थे वे इस प्रक्रिया का अंग बनने में सफल हुए। संख्या के अतिरिक्त उनका जैन परिवेश भी इस विरोध को सफल बनाने में सहायक हुआ। कई छोटे - छोटे समूहों में सराक लोग ऐसे सुदूर और अगम्य भागों में बस गए जिससे उन्हें लम्बा समय तक छेड़ा नहीं जा सका और सराक समुदाय अपनी प्रजातीय शुद्धता और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को बचाए रख सके। सराक प्रजाति कला और उसकी शैली की रूपरेखा का परिचय प्राप्त करने के लिये उसके प्रमुख लोक तत्व, प्रमुख प्रतीकों का अध्ययन करना नितांत आवश्यक है। इस दृष्टि से सराक लोक चित्रकला में जो प्रमुख प्रतीक प्राप्त होते हैं उनमें तीर्थकरों की माता के सोलह शुभ स्वप्न, अष्ट मांगलिक शुभचिन्ह, तीर्थकर के आसन के रूप में ईषत्प्रभार या
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