Book Title: Arhat Vachan 2002 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 72
________________ मढबिद्री (कर्नाटक) के सिद्धांतवसादि जिनालय मे सुरक्षित हैं। इन ताडपत्रों की लम्बाई 27 इंच व चौड़ाई 3-4 इंच है। जिनशासन की इन महत्वपूर्णनिधियों को सुरक्षा एवं स्थायित्व प्रदान करने हेतु विगत एक शताब्दी से प्रयत्न जारी है। अनेक कठिनाइयों व सतत् प्रयत्नों के उपरांत कन्नड एवं संस्कृत भाषाविद् विद्वानों द्वारा की गई उनकी प्रतिलिपियां वर्तमान में देश के कुछ नगरों - सहारनपुर, कारंजा, आरा, सागर, अमरावती आदि में सुरक्षित है। सन् 1933 में आयोजित अखिल भारतीय दि. जैन परिषद के इटारसी (मध्यप्रदेश) अधिवेशन में विदिशा निवासी सेठ लक्ष्मीचंद द्वारा प्राप्त दान एवं डाक्टर हीरालाल जैन सिद्धांतशास्त्री के सतत् प्रयासों से जिनागम धवला का हिन्दी अनुवाद सहित 16 भागों में पुस्तकाकार प्रकाशन हो चुका है। "जयधवला' को भी दिगम्बर जैन संघ, चौरासी मथुरा ने 16 भागों में प्रकाशित किया है तथा "महाधवल' भी सात खंडों में भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली द्वारा मुद्रित किया जा चुका है। धवला का तो दूसरा संस्करण भी जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापूर ने प्रकाशित किया है। इन सिद्धांत ग्रथों के हिन्दी भाषा में अनुवादित संस्करण प्रकाशित हो जाने के कारण वर्तमान में इनका अध्ययन, मनन संभव एवं सुलभ हो गया है। कुछ नगरों के जिनालयों में इन्हें श्वेत संगमरमरर पट्टिकाओं पर भी उत्कीर्णित किया जा चुका है। ज्ञान गंगा को प्रवाहित रखने में उच्च साधक आचार्यों का प्रमुख योगदान है। आचार्य कुंदकुंद जिन्हें भगवान महावीर एवं उनके प्रमुख गणधर गौतम के साथ - साथ स्मरण किया जाता है, ने वस्तु विचार एवं पदार्थ मीमांसा आदि विषयों को द्रव्यानुयोग में, आचार्य वट्टकेर स्वामी ने लोकालोक के विभाग, युगों के परिवर्तन तथा चतुर्गतियों के स्वरूप को चरणानुयोग में प्रकाशित किया है। इन्हीं के द्वारा निबद्ध मूलाचार मुनियों के आचार पर एक अधिकृत रचना है। जैन सिद्धांतों के गभीर एवं सूक्ष्म प्रवक्ता स्वामी समतमद्र की उपासकाध्ययनांग के आधार पर श्रावकाचार को प्रतिपादित करने वाली "रत्नकरंड श्रावकाचार' एक उत्कृष्ट रचना है। आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण, रविषेण कृत पद्मपुराण तथा जिनसेनकृत हरिवंश पुराण आदि रचनाओं ने प्रथमानुयोग को विस्तार दिया है। इसी क्रम में आचार्य गद्धपिच्छ, शिवकोटि, पूज्यपाद, मट्टाकलंकदेव, अमृतचंद्राचार्य, विद्यानंदि आदि आचार्यों के प्रयास भी निरतर गतिशील रहे। जैन परम्परा में वर्तमान में रचित श्रुत को भी पूर्वश्रुत की भांति ही प्रामाणिकता प्राप्त है। श्रुत के उस शताब्दी के वर्तमान रचनाकारों ने पूर्वश्रुत के आधार पर अनेक सैद्धांतिक ग्रंथों की रचना की है। इनमें श्री राजमल, बनारसीदास एवं कहानजी स्वामी आदि प्रमुख हैं। विस्मृत होते धर्म सिद्धांत एवं आचरण आदि को स्थापित रखने में इन सभी का योगदान स्तुत्य है। इस प्रकार वीर हिमाचल से प्रवाहित ज्ञान गंगा रूप श्रुत को प्रवाहित रखा। गणधरों एवं अनेक आरतीय आचार्यों ने निरंतरी प्रवाहित रखा। उन सभी को हमारा सादर नमन। सन्दर्भ 1. धवला प्रस्तावना. 2. जैन दर्शन, प्रो. महेन्द्रकुमार जैन. 3 जैन साहित्य का इतिहास, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री. 4. पं. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ, 5. महापुराण, आचार्य जिनसेन. 6. जैन सन्तांक, अहिंसावाणी (मासिक). 7. परमागम, श्रुतवाणी. 8. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, श्री जुगलकिशेर मुखत्यार. प्राप्त : 2.11.200 68 अर्हत् वचन, 14(4), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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