Book Title: Arhat Vachan 2002 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 70
________________ 1. कुदकुद पुर निवासी आचार्य पद्मनंदि - अपरनाम कुंदकुंदाचार्य ने आचार्य परम्परा से प्राप्त कर्म प्राभृत एवं कषाय प्राभृत के ज्ञान के आधार पर षट्खंडागम के प्रथम तीन खंडों पर प्राकृत भाषा एवं वृत्ति रूप में बारह हजार श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नामक टीका रची थी। 'धवला' में इस टीका का अनेक स्थलों पर उल्लेख प्राप्त होता है। 2. शामकुंडाचार्य ने षट्खंडागम के प्रथम पांच खंडों व कषाय प्राभूत पर टीका की थी। बारह हजार श्लोक प्रमाण इस टीका की भाषा - प्राकृत, संस्कृत व कन्नडी भाषा का मिश्रित रूप था। पद्धति रूप में लिखे जाने के कारण इसे "शामकुंड पद्धति' कहा जाता था। 3. तुम्बुलूर ग्रामवासी आचार्य, जिन्हें उनके ग्राम के नाम से तुम्बुलूराचार्य कहा जाता था ने प्राकृत भाषा में, षट्खंडागम के प्रथम पांच खडों पर चौरासी हजार श्लोक प्रमाण चूडामणि नामक टीका की रचना की थी। इन्होंने षट्खंडागम के छठवें खंड पर भी सात हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखी थी। धवला की प्रशस्ति में इस टीका का उल्लेख है। आचार्य अकलंक देव ने इस टीका की प्रशंसा करते हुए इसे "तत्वार्थ महाशास्त्र व्याख्यान' नाम दिया है। तार्किकाचार्य समंतभद्र ने भी षट्खंडागम के प्रथम पांच खंडों पर सरल एवं पांडित्य पूर्ण संस्कृत भाषा में अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका की रचना की थी। पश्चात छठवें खंड पर भी वे टीका लिखने वाले थे जिसे अपनी अस्वस्थता के कारण वे प्रारंभ न कर सकें। षट्खंडागम के लिपिबद्ध होने के पश्चात् सात शताब्दियों में इन टीकाओं की रचना हुई थी। उसके पश्चात आठवीं शताब्दि में धवला आदि टीकाओं की रचना हुई। वर्तमान में वीरसेनाचार्य कृत "धवला", "जयधवला' एवं 'महाधवला" टीकाओं के अतिरिक्त पूर्वकृत कोई भी टीका उपलब्ध नहीं है। आचार्य वीरसेन ने बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण, संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में "धवला' टीका ग्रंथ की रचना की थी। धवला के अंतिम पद्यों के अनुसार, शक संवत 738, कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी - तदनुसार विक्रम संवत् 873 तथा ई. सन् 816, अक्टूबर 18 को यह रचना पूर्ण हुई थी। शुक्ल पक्ष की अतिधवल चंद्रज्योत्सनावत आत्म कल्याणप्रद श्रुत ज्ञान को प्रकाशित करने वाली इस टीका का "धवला" नाम सार्थक प्रतीत होता है। यह टीका महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्य काल में समाप्त हुई थी। महाराज अमोघवर्ष की एक उपाधि "अतिशय धवल' भी थी। अत: इस टीका को 'धवला' नामकरण का एक कारण यह भी संभव है। "धवला' टीका प्रारंभ करने के पूर्व टीकाकार के समक्ष षट्खंडागम की अनेक टीकाएं तथा प्रबुद्ध मनीषी आचार्यों द्वारा रचित सिद्धांत साहित्य का विशाल भंडार उपस्थित था। सिद्धसेन दिवाकर कृत "समय सुत्तम्" अकलंक देव कृत तत्वार्थ राजवर्तिक, कुंदकुंदाचार्य कृत प्रवचन सार एवं पंचास्तिकाय आचार्य वट्टकेर स्वामी कृत मूलाचार, देवसेनकृत नयचक्रम् तथा आचारांग नियुक्ति व भगवती आराधना, आप्तमीमांसा आदि अनेक सैद्धांतिक ग्रंथ प्रकाश में आ चुके थे। इन सबके सन्दर्भ 'धवला' में प्राप्त होते हैं जो इसे प्रमाणिकता प्रदान करते हैं। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में विविक्षित विषयों का प्रतिपादन पूर्वाचार्य परम्परा के अनुसार ही किया है। टीका की निर्वचनिकाओं में भाष्य, चूर्णि, कृत्ति, व्याख्या, प्रश्नोत्तर एवं मौलिक चिंतन - सभी विधाओं के गुण धर्म विद्यमान हैं। सूत्रों की व्याख्या सटीक स्पष्ट एवं अकाट्य है। आचार्य वीरसेन को षट्खंडागम के सूत्रों तलस्पर्शी ज्ञान व उन पर श्रद्धा थी अत: अन्य किसी भी आचार्य द्वारा सत्य के विपरीत की गई व्याख्या उन्हें स्वीकार नहीं थी। आगम सिद्धांतों के विशिष्ट ज्ञाता होने के साथ - साथ वीरसेनाचार्य का 66 अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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