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हैं। सर्वप्रथम पूर्व में रचे जाने के कारण ही इन्हें पूर्व कहा जाता है।
तीर्थकर महावीर रूप हिमाचल से प्रारम्भ श्रुतज्ञान गंगा प्रवाह केवलि रिद्धिधारी गणधरों - गौतम, लोहार्य व जम्बूस्वामी तथा पाँच श्रुतकेवली - विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन व भद्रबाहु द्वारा प्रवाहित होता रहा। पश्चात् इस ज्ञानधारा को ग्यारह अंग व दस पूर्वो के ज्ञाता ग्यारह विद्वान आचार्यों - विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव तथा धर्मसेन, पाँच एकादश अंगधारी - नक्षत्राचार्य - जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन तथा कंसाचार्य तथा आचारांगधारी- सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु व लोहार्य
आदि आचार्यों ने प्रवाहित रखा। आचारांग व शेष श्रुत के एक देश के ज्ञाता आचार्य धरसेन इस श्रृंखला के अंतिम आचार्य थे। आचार्य धरसेन अष्टांग महानिमित्त के पारगामी विद्वान थे। 'ग्रंथराज धवला' में उल्लिखित कालगणना के अनुसार तीर्थकर महावीर के पश्चात 62 वर्षों में तीन केवली, 100 वर्षों में पांच श्रुतकेवली, 183 वर्षों में 11 दशपूर्वी, 220 वर्षों में पांच एकादश अंगधारी तथा 118 वर्षों में चार एकांगधारी आचार्य हुए थे। इस प्रकार वीर निर्वाण के 683 वर्ष पश्चात आचार्य धरसेन का अविर्भाव हुआ था।
जैन धर्म सिद्धांतों के प्रकाण्ड विद्वान तथा अंग एवं पूर्वो के ज्ञाता आचार्य धरसेन सौराष्ट्र देश के गिरनार पत्तन के समीप ऊर्जयतगिरि की चंद्रगुफा में ध्यान अध्ययन में लीन रहते थे। अपने जीवन के अंतिम काल में श्रुत विच्छेद की आशंका से उन्होंने महिमा नगरी स्थित मुनिसंघ के आचार्य को, धर्म सिद्धांतों को ग्रहण एवं धारण करने में समर्थ - दो साधकों को गिरनार भेजने हेतु निवेदन प्रेषित किया। आचार्य धरसेन की इच्छा के अनुरूप मुनिसंघ ने समस्त कलाओं में पारंगत विनयविभूषित, शीलवान तथा देश, काल जाति से शुद्ध दो मुनियों को उनके पास भेजा। इन दोनों मुनियों के आने के पूर्व धरसेनाचार्य ने स्वप्न में दो शुभ्रधवल वृषभों को अपने चरणों में नमन करते देख जान लिया कि श्रुत को धारण करने में समर्थ दो शिष्यों का सान्निध्य शीघ्र प्राप्त होने वाला है। मुनिसंघ से आगत दोनों विद्वानों की परीक्षा लेने हेतु उन्होंने एक साधक को अधिकाक्षरी व दूसरे को हीनाक्षरी मंत्र दे उसे षष्टोपवास विधि से सिद्ध करने का आदेश दिया। मंत्राक्षरों में हीनाधिकता के कारण दो विकृत देवियां - एक बड़े दांतों वाली तथा दूसरी एक आंख वाली प्रकट हुई। मंत्रों के इस कुपरिणाम पर विचार कर मंत्र - व्याकरण में निपुण उन साधकों ने मंत्राक्षरों में आवश्यक परिवर्तन कर पुन: साधना की जिसके फलस्वरूप दोनों देवियां अपने सौम्य रूप में उपस्थित हुई। दोनों साधकों को स्वकार्य हेतु उपयुक्त स्वीकार कर आचार्य श्री ने उन्हें मनोयोग पूर्वक क्रम से सम्पूर्ण श्रुत सिद्धांत महाकर्म प्रकृतिप्राभृत की विस्तृत शिक्षा दी। शिक्षा पूर्ण होने पर हर्षित भूतव्यंतरों ने शंखादि की ध्वनिपूर्वक पुष्पमालाओं से दोनों साधकों का सत्कार किया। भूतों द्वारा सत्कार किए जाने के कारण आचार्यश्री ने एक साधक को भूतबलि व दूसरे को उसकी दन्तावलि के अनुरूप पुष्पदंत नाम प्रदान किया। आयु में भूतबलि पुष्पदंत से छोटे थे।
शिक्षापूर्ति के पश्चात दोनों साधु आचार्यश्री की आज्ञानुसार विहार करते हए अंकलेश्वर आए तथा वर्षाकाल वहीं व्यतीत किया। वर्षायोग समाप्त होने पर पुष्पदंत एक परिचित साधु जिनपालित के साथ अपनी जन्मभूमि वनवास (कर्नाटक) चले गए तथा भूतबलि ने द्रमिल देश की ओर गमन किया। पश्चात पुष्पदंत ने जिनपालित को दीक्षा दी तथा गुणस्थान एवं मार्गणाओं का प्ररूपण करने वाले बीस प्ररूपणा (अधिकार) गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्रों की शिक्षा दे उन्हें आचार्य भूतबलि के पास भेज दिया। आचार्य भूतबलि ने जिनपालित के निमित्त तथा आचार्य पुष्पदंत की कालावधि समीप जान महाकर्म प्रकृति प्राभूत के विच्छेद होने के भय से, द्रव्यप्रमाणानुगम से लेकर शेष ग्रंथ की रचना शीघ्रता से पूर्ण की।
अष्टांग महानिमित्त के पारगामी आचार्य धरसेन उस काल के श्रुतघर आचार्यों में
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अर्हत् वचन, 14 (4), 2002
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