Book Title: Arhat Vachan 2002 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 67
________________ 3. वीर्यानुप्रवाद में छद्मस्थ केवलियों के वीर्य, सुरेन्द्र व दैत्यपतियों की ऋद्धियाँ, नरेन्द्र चक्रवर्ती व बलदेवों की शक्ति एवं द्रव्यों के सम्यक् लक्षण वर्णित हैं। इसकी पद संख्या सत्तर लाख है। 4. अस्तिनास्ति प्रवाद में पाँच अस्तिकाय व नयों का विभिन्न पर्यायों के माध्यम से निरूपण किया गया है। इसकी पद संख्या साठ लाख है। 5. ज्ञानप्रवाद में पाँचों ज्ञानों की उत्पत्ति के कारण, ज्ञानी, अज्ञानी व इन्द्रियों का विशेष कथन है। इसके पदों की संख्या एक कम एक करोड़ है ज्ञानप्रवाद पूर्व के भी बारहवस्तु अधिकार हैं तथा प्रत्येक अधिकार बीस-बीस प्राभृत अधिकारों में विभाजित है। इनमें से दसवें वस्तु के 'समय' नामक प्राभृत के मूल सूत्रों का शब्दश: ज्ञान प्राचीन आचार्यों को था। आचार्य परिपाटी के अनुसार उसके अर्थ का ज्ञान श्री कुन्दकुन्दाचार्य को भी था जो उनके द्वारा रचित 'समय प्राभृत' के परिभाषा सूत्रों में परिलक्षित होता है। 6. 7. सत्यप्रवाद में वचन गुप्ति व वचन संस्कार के कारण भूत कंठ आदि आठ अंगों, भाषा के बारह प्रकार, वक्ता तथा सत्य व असत्य वचनों के भेदों की विवेचना की गई है। इसके पदों की संख्या एक करोड़ छह है। 9. आत्मप्रवाद में आत्मा के अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि धर्म तथा षट्कायिक जीवों के भेदों का युक्तिपूर्वक कथन किया गया है। इसके पदों की संख्या छब्बीस करोड़ है। 8. कर्मप्रवाद में कर्मों के बंध, उदय, उपशम, निर्जरा, अनुभव प्रदेश बंध तथा कर्मों की जघन्य मध्यम एवं उत्कृष्ट स्थितियों का वर्णन है। इसकी पद संख्या एक करोड़ अस्सी लाख है। प्रत्याख्यानप्रवाद में मुनिपद के कारण मूल व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, कल्प, उपसर्ग, आचार, प्रतिमा विराधना व आराधना एवं विशुद्धि के उपक्रम तथा सीमित व असीमित द्रव्य एवं भावों के त्याग आदि का विस्तृत उल्लेख किया गया है। इसकी पद संख्या चौरासी लाख है। 10. विद्यानुप्रवाद में समस्त विद्याओं, आठ महानिमित्त रज्जुराशिविधि, लोक का आकार एवं समुद्धात आदि का वर्णन है। इसकी पद संख्या दस लाख है। 11. कल्याणप्रवाद में सूर्य, चन्द्र ग्रह, नक्षत्र व तारागणों की गति व उसका फल, शकुन विचार तथा अर्हन्त, बलदेव, चक्रवर्ती के गर्भावतार आदि का कथन है। इसकी पद संख्या छब्बीस करोड़ है। 12. प्राणवाय में आयुर्वेद की अष्टांग चिकित्सा, भूति कर्म, नांगुलि व प्राणायाम आदि का विस्तृत उल्लेख किया गया है इसकी पद संख्या एक करोड़ छप्पन लाख है। 13. क्रियाविशाल में बहत्तर कला, स्त्रियों के चौसठ गुण, शिल्प, काव्य के गुण-दोष तथा छन्द रचना आदि का वर्णन है। इसकी पद संख्या नौ करोड है। वर्ग, 14. लोक बिन्दुसार में आठ प्रकार के व्यवहार, चार बीज, परिकर्म, व्यवहार, रज्जुराशि, बीजगणित, कलासवर्ण ( भिन्नों से सम्बन्धित गणित का एक प्रकार), गुणा, भाग, घनत्व एवं मोक्ष स्वरूप का वर्णन है। इसकी पद संख्या साढ़े बारह करोड़ है। जैन परम्परा में दृष्टिबाद अंग एवं पूर्वो का विशेष महत्व है। पूर्वो में आत्मा, कर्म, ज्ञान, त्याग आदि के साथ साथ मंत्र तंत्र, ज्योतिष, आयुर्वेद व कला आदि का विशेष एवं विस्तृत विवरण प्राप्त होता है श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार तीर्थकर की वाणी को गणधर अपने अपने प्रवर्तन काल में सर्वप्रथम, पूर्व गत सूत्रों के रूप में ही निबद्ध करते अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 63 www.jainelibrary.org

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