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अपभ्रंश-साहित्य
अपभ्रंश के अनेक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं; अनक अभी तक हस्तलिखित प्रतियों के रूप में अप्रकाशित पड़ हैं। कितने ही ग्रंथ जैन भण्डारों में अभी तक लुप्त पड़े हैं। इस सारे साहित्य का गंभीर और विवेचनात्मक अध्ययन अद्यावधि संभव नहीं । इस निबन्ध में अपभ्रंश के प्रकाशित तथा अप्रकाशित मूल ग्रंथों का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । साथ ही प्रकाशित और अप्रकाशित प्राप्य अपभ्रंश-ग्रंथों का साहित्यिक दृष्टि से वर्गीकरण किया गया ह । इस सामग्री के अध्ययन के आधार पर निम्नलिखित परिणामों की ओर संकेत मिलता है -
१. संस्कृत और प्राकृत काव्यों का वर्णनीय विषय सामान्यतः राम कथा, कृष्ण कथा, प्राचीन उपाख्यान, धार्मिक महापुरुष, प्रसिद्ध राजा आदि से संबद्ध कोई विषय होता था, परन्तु अपभ्रंश में इन सबके साथ-साथ सामान्यवर्ग के पुरुषों को भी काव्य में नायक बनाया गया। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश-साहित्य में जन-धर्म सम्बन्धी कथानकों का वर्णन विपुल मात्रा में पाया जाता ह। .
२. प्रबन्ध काव्यों में चरित नायक के वर्णन के साथ-साथ जिन अन्य दृश्यों के वर्णन की परम्परा अभी तक चली आ रही थी उनको मानव-जीवन के दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न अपभ्रंश काव्यों से हुआ । यद्यपि प्राकृत में ही इस प्रवृत्ति के बीज विद्यमान थ किन्तु उसका विकास अपभ्रंश साहित्य में ही हुआ।
३. अपभ्रंश के अधिकांश काव्यों में शृंगार और वीररस से परिपोषित निर्वेदभाव या शान्त रस की ही प्रधानता है।
४. अपभ्रंश साहित्य में तीन धाराएँ बहती हुई प्रतीत होती हैं—प्रथम रूढ़िवादी कवि जिनकी संख्या अल्प ह, द्वितीय क्रांतिवादी-जो बहुसंख्यक ह और तृतीय मिश्रित—जिनकी संख्या रूढ़िवादियों से कुछ अधिक है।
५. लौकिक जीवन और ग्राम्य जीवन से संबद्ध वर्णनों का प्रभाव अपभ्रंश की मुक्तक काव्य शैली में अधिक स्पष्ट प्रतीत होता है।
६. प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में या अलंकार-विधान में लौकिक जीवन से संबद्ध उपमानों का प्रयोग अपभ्रंश कवियों की विशेषता थी।
७. अपभ्रंश में अनेक नये छन्दों का प्रादुर्भाव हुआ जिनका संस्कृत में अभाव है
८. छन्दों के समान नवीन अलंकारों को भी अपभ्रंश न जन्म दिया। अपभ्रंश विषयक अलंकार ग्रंथों के अभाव से यद्यपि उन अलंकारों का नामकरण भी न हो सका तथापि इस प्रकार के कुछ अलंकारों का प्रयोग हिन्दी में भी पाया जाता है।
९. हिन्दी छन्दों में मात्रिक छन्दों की अधिकता और उनमें अन्त्यानुप्रास का प्रयोग अपभ्रश से ही आया। हिन्दी के अनक मात्रिक छन्द अपभ्रंश से ही विकसित हुए।
१०. हिन्दी के भिन्न-भिन्न काव्य-रूपों, काव्य-पद्धतियों और काव्य-शैलियों को अपभ्रंश ने प्रभावित किया।
११. हिन्दी कवियों की विचारधारा पर भी अपभ्रंश कवियों का प्रभाव पड़ा। १२. भरत खंड में चिरकाल से भारतीय साहित्य की धारा अविच्छिन्न गति से