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अपभ्रंश-साहित्य
लेखक ने अपभ्रंश - साहित्य, अपभ्रंश साहित्य का इतिहास, अपभ्रंश काल, व्याकरण, छन्द एवं उसका आभीर - जाति से सम्बन्धादि विषयों पर भी प्रकाश डाला । इस विद्वत्तापूर्ण भूमिका द्वारा डा० गुणे ने अपभ्रंश के भावी विद्वानों के लिए अपभ्रंश के अध्ययन का मार्ग सुप्रशस्त कर दिया । इसके बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के तत्कालीन रिसर्च स्कालर श्री हीरालाल जन ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी स्टडीज़ भाग १, सन् १९२५ में 'अपभ्रंश लिटरेचर' नामक लेख द्वारा अनेक अपभ्रंश ग्रन्थों की सूचना दी । सन् १९२६ में रा० ब० हीरालाल ने 'कटलोग आफ संस्कृत एंड प्राकृत मैनस्क्रिप्ट्स दि सी. पी. एंड बरार, नागपुर से प्रकाशित करवाया जिससे कुछ और अपभ्रंश ग्रन्थ और उनके कवि प्रकाश में आये । सन् १९२७ में श्री एल० बी० गांधी ने 'अपभ्रंश काव्यत्रयी' तथा 'प्राचीन गर्जर काव्य-संग्रह' का सम्पादन कर प्रकाशन करवाया । इस से कतिपय अन्य अपभ्रंश कवि और उनकी रचनाओं का परिचय मिला । सन् १९२८ में डा० पी० एल० वैद्य ने 'हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण' का सम्पादन किया, जिससे अपभ्रंश के अध्ययन में और सहायता मिली ।
इस समय तक भारतीय विद्वानों का ध्यान अपभ्रंश की तरफ आकृष्ट हो चका था। डा० बाबूराम सक्सेना न विद्यापति की 'कीर्तिलता' का सम्पादन कर नागरी प्रचारिणी सभा काशी से सन् १९२९ में उसे प्रकाशित कराया । डा० हीरालाल जन ने 'सावयधम्म दोहा' (सन् १९३२), 'पाहुड दोहा' (सन् १९३३), 'णाय कुमार चरिउ' (१९३३), 'करकंड चरिउ (१९३४) आदि ग्रंथों का सम्पादन कर प्रकाशन कराया । डा० परशराम वैद्य ने पुष्पदन्त के 'जसहर चरिउ' का (सन् १९३१) में और 'महापुराण' के तीन भागों का ( सन् १९३७, १९४० और १९४१ में) सम्पादन किया । डा० आ० ने० उपाध्ये ने सन् १९३७ में 'परमात्म प्रकाश' और 'योगसार' का प्रकाशन कराया । महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री के बाद डा० शहीदुल्ला ने पेरिस से सन् १९२८ में और डा० प्रबोधचन्द्र बागची न सन् १९३८ में कलकत्ता से कुछ सिद्धों के दोहे और गान प्रकाशित कराये । श्री राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों की रचनाओं के विषय में तिब्बती ग्रन्थों के आधार पर, पहले गंगा पुरातत्वांक द्वारा और पीछे से पुरातत्व निबन्धावली (सन् १९३७) में 'हिन्दी के प्राचीनतम कवि' नामक लेख द्वारा विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया ।
उपरिनिर्दिष्ट विद्वानों के अतिरिक्त लुडविग आल्सडर्फ, श्री मुनि जिन विजय, श्री भायाणी' डा० हरि दामोदर वेलणकर प्रभृति विद्वान् अब भी अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन में संलग्न है और अनेक विद्वानों के लेख समय-समय पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं । सन् १९५० में श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल ने जयपुर से आमेर शास्त्र भंडार के अनेक हस्तलिखित संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश ग्रंथों की प्रशस्तियों का संग्रह प्रकाशित किया । इससे अनेक अपभ्रंश कवियों और उनके ग्रंथों पर प्रकाश पड़ा ।
अपभ्रंश की ओर विद्वानों का ध्यान सर्वप्रथम भाषा विज्ञान के कारण गया । तदनंतर