________________
प्राक्कथन संस्कृत साहित्य के अध्ययन के साथ-साथ विदेशी विद्वानों में प्राकृत साहित्य के अध्ययन का भी प्रचलन हुआ । इसी के परिणामस्वरूप विद्वानों का ध्यान अपभ्रंश साहित्य की ओर आकृष्ट हुआ। वस्तुतः इस साहित्य का श्रीगणश पिशेल और याकोबी जैसे विद्वानों से ही हुआ। भाषा-विज्ञान तथा साहित्य के अध्ययन के क्षेत्र में अपभ्रंश का प्रवेश १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से पूर्व न हो सका।
रिचर्डस् पिशेल ने हेमचन्द्र के शब्दानशासन और अन्य वैयाकरणों के प्राकृत ग्रन्थों के अध्ययन के अनन्तर 'अमेटिक डेयर प्राकृत स्प्राखन' नामक ग्रन्थ सन् १९०० में प्रकाशित कराया। इसके थोड़े समय बाद ही पिशल ने उस समय तक उपलब्ध सम्पूर्ण अपभ्रंश सामग्री को एकत्र कर 'मेटिरिएलिन त्सुर केंटनिस डेस अपभ्रंश' नामक ग्रन्थ सन् १९०२ में वलिन से प्रकाशित कराया। पिशल के समान हेरमन याकोबी ने भी अनेक प्राकृत कथाओं का संग्रह और अनेक प्राकृत ग्रन्थों का सम्पादन कर उनका प्रकाशन कराया।
उपरिलिखित विद्वानों के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप अनेक भारतीय और अन्य विदेशी विद्वानों का ध्यान भी अपभ्रंश की ओर आकृष्ट हुआ। प्रो. पिशेल के व्याकरण ग्रन्थ के विद्वानों के समक्ष आने पर अन्य व्याकरण ग्रन्थों का सम्पादन भी आरम्भ हुआ । श्री चन्द्र मोहन घोष ने सन् १९०२ में 'प्राकृत पैंगलम्' और देवकरण मूलचन्द ने सन् १९१२ में हेमचन्द्र के 'छन्दोऽनुशासन' का सम्पादन किया । इन ग्रन्थों के प्रकाश में आने पर अन्य अपभ्रंश ग्रन्थों की खोज और सम्पादन भी आरम्भ हुआ। महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री ने १९१६ ई० में बंगीय साहित्य परिषद् कलकत्ता से 'बौद्धगान ओ दोहा' नाम से बौद्ध सिद्धों के अपभ्रंश दोहों और गानों का बंगला अक्षरों में प्रकाशन कराया । सन् १९१८ में डा० याकोबी ने धनपाल की भविसयत्त कहा' का म्यूनिख 'जर्मनी' से प्रकाशन कराया। भूमिका और अनुवाद जर्मन भाषा में हैं । सन् १९२१ में इसी विद्वान् ने हरिभद्र सूरि के नेमिनाथ चरित्र के एक अंश सनत्कुमार चरित को, जो अपभ्रंश भाषा में है, मुंशेन 'जर्मनी' से प्रकाशित किया। इसकी भी भूमिका, अनुवाद और टिप्पणी जर्मन भाषा में है। दोनों ग्रन्थों की भूमिका बड़ी ही विद्वत्तापूर्ण और उपादेय ह । सन् १९१४ म बड़ौदा के महाराज सर सयाजी गायकवाड़ के आदेश से श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल ने पाटण (पत्तन) के जैन ग्रंथ भंडार की पुस्तकों की छानबीन करके कुछ अपभ्रंश ग्रंथों का पता लगाया। श्री दलाल ने जैन भंडारों में हस्तलिखित अपभ्रंश ग्रंथों की खोज से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर 'भविसयत कहा' का एक दूसरा संस्करण प्रकाशित करना प्रारम्भ भी किया किन्तु बीच में ही उनके स्वर्गवास हो जाने पर डा० पांडुरंग दामोदर गुणे ने उसे सन् १९२३ में पूरा कर प्रकाशित किया। इस ग्रंथ की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भूमिका में