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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : २५
को मिलनेच्छा ही प्रेम है। यह प्रेम प्रेमी और प्रेमिका को एक स्तर पर ला खड़ा करता है, जिससे वे परस्पर मिलकर एकात्म हो सकें। कुछ लोगों के मत में प्रेम आनन्द ( भौतिक ) के अतिरिक्त कुछ नहीं है। कार्लमेनिंगर के विचार से दो व्यक्तियों के सम्मिश्रण से प्राप्त अनुभत्यात्मक आनन्द प्रेम है। परन्तु भारतीय दष्टिकोण इससे भिन्न है। हमारे यहाँ इस प्रकार के आनन्द को 'काम' संज्ञा दी गई है। कामशास्त्र-प्रणेता वात्स्यायन लिखते हैं, 'स्पर्शविशेषविषयात्त्वस्याभिमानिकसुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात्कामः।' अर्थात् स्पर्शादिक विशेष क्रिया से सुख के साथ जो फलवान् आनन्द को प्रतीति होती है, वह काम है। कबीरदास जी ने बंड़ी हृदयस्पर्शी घोषणा की थी :
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ॥ ४. २७७. परन्तु इस 'ढाई आखर' की तह तक पहुँच पाना सबके वश की बात नहीं । जायसी इस प्रेम की उत्पत्ति 'विरहजन्य' मानते हैं_ 'जब लगि विरह न होइ तन, हिये न उपजइ प्रेम'
__-जायसी, चित्ररेखा, ६. ९८. और जब. विरह होने पर 'प्रेम' उपज गया तब भी कार्य अधूरा ही रहता १. डा० भगवानदास, साइंस आफ इमोशंस, पृ० २७. "Love is the
desire for union with the object loved, and therefore even tends to bring subject and object to one level in
order that they may unite and become one." २. कालमेनिगर, लव अगेन्स्ट हेट, पृ० २७. "Love is experienced
as a pleasure in proximity of a desire for fuller knowledge of one another, a yearing for mutual
personality fusion." ३. वात्स्यायन, कामसूत्र, १. २. १२. ४. (अ) सं०-डा० शिवसहाय पाठक, चित्ररेखा, प० १४२.
___कोटिक पोथी पढ़ि मरे, पंडित भा नहिं कोइ । . एक अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होइ ॥-चि०रे० ५१. (ब) सं०-डा० श्यामसुन्दरदास, कबीर ग्रन्थावली, पृ० ३०.