Book Title: Apbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Sohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti

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Page 354
________________ ३४० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक रामभगत सुरसरितहि जाई । मिली सुकीरति सरजु सुहाई । मानुज राम समर जसु पावन । मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥ जुग विच भगति देवधुनि धारा । सोहति सहित सुबिरति बिचारा । त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु सुमुहानी ॥ मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही । बिच-बिच कथा विचित्र विभागा। जनु सरि तीर तीर बन भागा ॥ उमामहेस बिवाह बराती । ते जलचर अगनित बहु भांती । रघुवर जनम अनंद बधाई । भवंर तरंग मनोहर ताई ॥ बालचरित चहु वंधु के बनज विपुल बहुरंग । नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर वारि विहंग ॥ - बालकांड, ३९-४०. स्वयंभू करते ने भी अपने पउमचरिउ में रामकथा की तुलना सरिता से 'हुए लिखा है कि यह रामकथारूपी सरिता क्रम से चली आ रही है । इसमें अक्षरसमूह सुन्दर जलसमूह है, सुन्दर अलंकार और शब्द मत्स्यगृह हैं, दीर्घ समास वक्र प्रवाह है, संस्कृत और प्राकृत अलंकृत पुलिन है, देशी भाषा दोनों उज्ज्वल तट हैं, कवि से प्रयुक्त कठिन और सघन शब्द शिलातल के समान हैं, अर्थबहुलता उठती हुई तरंगे हैं - इस प्रकार यह रामकथा शोभित होती है : वड्ढमाण मुह कुहर विणिग्गय राम कहाणइ एह कमांगय । अक्खर पास जलोह मणोहर सुअलंकार सद्द मदोहर || दोहसमास पवाहा पंकि सक्कय पाय पुलिणालंकिय । देसी भासा उभय जडुज्जल' कवि ठुक्कर घण सद्द सिलायल ॥ अत्थ बहल कलेलाणिट्ठिय आसासय सम तूह परिट्ठिय । एह रामकह सरि सोहंती गणहर देविहि दिट्ठ वहंती ॥ — पउमचरिउ, १.२. वर्णन को परिपाटी में भी समानता पाई जाती है, इसके लिये उक्त प्रमाण से अच्छा कौन-सा प्रमाण दिया जा सकता है । अपभ्रंश कथाकाव्यों एवं हिन्दी प्रेमाख्यानकों के मनोरंजन के साधनों, सांस्कृतिक, सामाजिक उपादानों के वर्णनप्रसंगों में भी कदाचित् मूल

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