Book Title: Apbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Sohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti

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Page 361
________________ उपसंहार : ३४७ काव्य समाहित हो जाते हैं। चरित्र, रास, विलास, पुराण आदि वस्तुतः बाह्य कलेवर की विशिष्टताओं को सूचित करने वाले नाम हैं, इनकी आत्मा में वे ही शैलीशिल्प के तत्त्व घुले-मिले हैं जो अपभ्रंश की प्रेमकथाओं या हिन्दी प्रेमाख्यानकों में मिलते हैं। यहीं पर विस्तार से संस्कृत से अपभ्रंश कथाओं को बिलगाने वाले उपादानों का विश्लेषण भी किया गया है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि ये तत्त्व संस्कृत कथाओं से कितने अलग और हिन्दी प्रेमाख्यानकों से कितने निकट हैं। ६. अपभ्रंश और हिन्दी प्रेमाख्यानकों का पूरा वस्तुविवेचन इस दृष्टि से किया यया है कि वह अपने भीतर के सभी शिल्पगत रहस्यों को उद्घाटित कर सके।. कथाओं का सारांश इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है ताकि हम उसमें से कथाशिल्प के सभी तत्त्व, वर्णनपद्धतियाँ आदि छाँट सकें। ७. अन्त में इन सभी उपादानों का सम्यक् अध्ययन करके यह दिखाने ___ का प्रयत्न किया गया है कि हिन्दी के प्रेमाख्यान वस्तुतः अपभ्रंश कथाकाव्यों में स्वीकृत पद्धति को पूरी तरह स्वीकार करके चलते हैं। . जहां कुछ भिन्नता है वहाँ विकास के कारण आई है, भिन्नता लाने : के लिए नहीं। - इस दृष्टि से इस प्रबन्ध में अपभ्रंश और हिन्दी प्रेमाख्यानकों की पृष्ठभूमि में विद्यमान सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों का साम्य . .. दिखाते हुए इस बात को स्पष्ट किया गया है कि कथाविन्यास (पुर विन्यास से तुलना करते हुए ), चरित, कथोद्देश्य, वस्तुवर्णन, कथाभिप्राय ( मोटिफ), निजंधरी तत्त्व, मंगलाचरण, सर्गनिबन्ध, ऋतुवर्णन, छन्दप्रयोग तथा कथा को भराव देने वाले जीवन के विभिन्न तत्त्व, खेल-क्रीडा, मनोरंजन आदि सांस्कृतिक मनबहलाव के साधनों के वर्णन में दोनों के भीतर कितनी समानता है। इस तरह से यह प्रबंध अपभ्रंश और हिन्दी प्रेमाख्यानकों के बीच की श्रृंखला के नियोजन का कार्य तो करता ही है, दोनों के बीच

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