Book Title: Apbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Sohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti

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Page 359
________________ उपसंहार : ३४५ हुए 'लोकतोऽवगन्तव्या, :कहते हैं, तो वे प्रकारान्तर से इसी बात की पुष्टि करते हैं। . अपभ्रंश का पूरा कथा-साहित्य, विशेषकर प्रेमाश्रित कथासाहित्य इसी लोकमानस की देन है। हिन्दी के प्रेमाख्यानकों की पृष्ठभूमि के रूप में इसका अध्ययन प्रेमाख्यानकों के अध्ययन की अनेकानेक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकता है। इस अध्ययन ने निम्न तत्त्वों के आधार पर इस मान्यता की साधार पुष्टि की है : २. संस्कृत में कथा-आख्यायिका का बृहत् साहित्य उपलब्ध है । कादम्बरी, दशकुमारचरित, बृहद्कथा तथा हर्षचरित आदि को कौन नकार सकता है। इन कथाओं में रोमांस, प्रेम के नाना पक्षों तथा जन्मजन्मान्तर की अनेक घाटियों में भटकती आत्माओं के मिलन का चटक रंगीन और धूमिल उदास करने वाला बहुविध वर्णन सर्वत्र मिलेगा। संस्कृत के आलंकारिकों ने इन कथा-आख्यायिकाओं को आधार बनाकर इनके लक्षण-निरूपण का भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, किन्तु क्या रुंद्रट, भामह, मम्मट, विश्वनाथ आदि द्वारा निरूपित लक्षण संस्कृत के कथा-साहित्य में यथावत् मिल जाते हैं ? ऐसा प्रतीत होता है कि ज्यों-ज्यों कालसरिता बढ़ती गयी और ज्यों-ज्यों उसके प्रवाह में नये-नये तत्त्व और उपादान बहकर आते गये त्यों-त्यों आचार्यों के लक्षणनिरूपण भी बदलते गये ! अपभ्रंश कथाओं में ऐसे अनेकानेक उपादान दिखाई पड़ते हैं जो संस्कृत कथासाहित्य में दुर्लभ हैं, इसीलिए इन आचार्यों को कथाकाव्य के लक्षणों के निरूपण में अनेक ऐसी बातों का समावेश करना पड़ा जो संस्कृतेतर लोकभाषा में गहीत होने वाले उपादानों को बाँध सके। हेमचन्द्राचार्य ने तो स्पष्ट ही संस्कृत कथा और संस्कृतभिन्न कथा को बिलगाने का प्रयत्न किया। अन्य आचार्यों के लक्षणग्रन्थों में भी यह विभाजन सांकेतिक ही सही वर्तमान अवश्य है। ३. अपभ्रंश कथा में गृहीत लक्षण आगे चलकर लोकभाषा हिन्दी के प्रेमाख्यानकों में पूरी तरह विकसित और पल्लवित हुए। दूसरे अध्याय के अध्ययन से इस बात की पुरस्सर. पुष्टि हो जाती है ।

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