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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १०१ भी उद्धरणीय है-'विषयवस्तु या अनुभूति और अजित विषयवस्तु या कला के बीच के अन्तर को शिल्प कहते हैं।" ___ शिल्प की चर्चा के प्रसंग में यह प्रश्न कि क्या कहानी या कथा शिल्पहीन हो सकती है ? एक पेचीदा प्रश्न है। इसके उत्तर में जैनेन्द्र जी कहते हैं कि-'नहीं हो सकती। क्या कोई शिशु ऐसा हो सकता है जिसके भोतर वह जटिल यन्त्र न हो जिसे मानव-यष्टि कहते हैं ? लेकिन एक अबोधा भी माता बन जाती है और उसे उस जटिलता का कुछ पता नहीं होता जिसका निष्पन्न रूप उसका शिशु है । कथा का शिल्प हो सकता है
और उसको जानने की भी आवश्यकता हो सकती है। किन्तु शरीर-यन्त्र का कितना भी ज्ञान हो, क्या केवल उस भरोसे किसी वैज्ञानिक ने अपने में से शिशु की सृष्टि को है ? शायद ज्ञान अपनी खातिर सृष्टिमर्म से संगत ही नहीं है। जैनेन्द्र जी का इसो के अनुरूप एक वक्तव्य और भी है-'मुझे ख्याल होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कहानी कला या शिल्प हो ही नहीं, बल्कि सष्टि हो । हर शिशु अपना बनाव और स्वभाव लेकर जन्मता है। दो प्राणी कभी एक से हो नहीं सकते । कारण, वे सृष्ट होते हैं, बनते नहीं हैं । एक माता-पिता.की सन्तति समान नहीं हो पाती । क्योंकि प्रत्येक सृष्टि पृथक् गर्भ का फल है । यानी अपना पृथक् आनन्द, पृथक् वेदना । एक फार्मूले और एक युक्ति में से जब जितनी चाहें एक नमूने की वस्तु निकाली जा सकती है और इस काम में शायद कुछ हुनर भी दरकार हो । पर कहानी लिखने में ठीक वैसा सुभीता होता है, यह मेरा अनुभव नहीं है।'३ इन उद्धरणों से दोनों हाथों में मोदक वाली उक्ति अधिक चारतार्थ हाती है। फिर भी जैनेन्द्र जी जैसे कथाकार शिल्प की आवश्यकता को नज़रन्दाज कैसे कर सकते थे? मैं तो यही समझा हूँ कि जिस प्रकार मानसविहीन मानव की कल्पना करना व्यर्थ हागा उसो प्रकार शिल्प-हीन कहानी या कथा को भी।
1. "The difference between content or experience and
achieved content or art is technique.”
- Technique as Discovery, Forms of Modern Fiction, p. 9. २. जैनेन्द्रकुमार, कहानी : अनुभव और शिल्प, पृ० ७४-७५. ३. वही, साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ३५४-५५.