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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३२९
पुंलिंग शब्द है जो संस्कृत 'छंदस्' से निकला है। हिन्दी में इस शब्द का सोलह अर्थों में प्रयोग मिलता है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने छन्द को आवेग का 'वाहन' तथा 'एक चित्त के अनुभव को अनेक चित्तों में अनायास संचरित करने वाला महान् साधन' माना है। कालिदास ने छन्द का आदि रूप प्रणव को माना है। -'प्रणवश्छन्दसामिव । पाणिनीयशिक्षा में वेदज्ञान की जिस पुरुषरूप में कल्पना की गई है उस पुरुष के चरण छन्द हैं :
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते। ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥ ४१ ॥ शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।
तस्मात् साङ्गमधीत्येव ब्रह्मलोके महीयते ॥ ४२ ॥ ऐसी मान्यता है कि वैदिक युग में छन्द देवताओं को प्रसन्न करने के. साधन थे। परन्तु साहित्यिक विधाओं में छन्दों का प्रयोजन 'एक चित्त के अनुभव को अनेक चित्तों में अनायास संचरित करने वाले महान . साधन' से है। डा० पुत्तूलाल शुक्ल के शब्दों में 'छन्द वह वैखरी ध्वनि ( मानवोच्चारित ध्वनि ) है, जो प्रत्यक्षीकृत निरन्तर तरंगभंगिमा से आह्लाद के साथ भाव और अर्थ को अभिव्यंजना कर सके। छन्द को भेदों की दष्टि से पिंगल नागमुनि ने सम, अर्द्धसम और विषम तीन रूपों में विभक्त किया है—सममर्धसमं विषमं च । पिंगलच्छन्दःसूत्रम् के टोकाकार हलायुध भट्ट ने लिखा है कि जिसके चारों पाद एक लक्षणयुक्त हों वह सम वृत्त और जिसके अर्ध पाद ( दो चरण ) एक समान हों तथा दूसरे दो चरण एक समान हों उसे अर्धसम छन्द
१. हिन्दी शब्दसागर ( बृहत् ). २. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, साहित्य का मर्म, पृ० ४१. ३. वही, पृ० ४६. ४. रघुवंश, १.११. ५. पाणिनीयशिक्षा, ४१-४२. ६. डा० पुत्तूलाल शुक्ल, आधुनिक हिन्दी-काव्य में छंद-योजना, पृ० २१.