________________
१०६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
भी उल्लेख किया है । आगे चलकर इन्हीं चारों रीतियों में भोजराज ने 'अवन्तिकारीति' नामक एक नई रीति को स्वीकारते हुए 'सरस्वतीकंठाभरण में' वैदर्भी, गोडी, पांचाली, लाटी, आवन्ती और मागधी इन छः रीतियों का उल्लेख किया है। जहाँ दो, तीन या चार समस्त पद हों तथा जो पांचाली और वैदर्भी के अन्तराल में स्थित हो वहाँ आवन्तीति मानी गई है।
.
साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण के नवें परिच्छेद में रीतियों के नामोल्लेख के साथ-साथ उनकी विशद परिभाषाएँ भी दी हैं। इनके अनुसार रीति, अंग-रचना की भाँति, पद-रचना अथवा पदसंघटना है जो कि रसभावादि की अभिव्यंजना में सहायक हुआ करती है । रीति चार प्रकार की है – १. वैदर्भी, २. गोडी, ३. पांचाली और ४. लाटी ।१ वैदर्भी वह रीति है जिसे माधुर्य के अभिव्यंजक वर्णों से पूर्ण, असमस्त अथवा स्वल्प-समासयुक्त ललित रचना कहा गया है । वैदर्भी को रुद्रट ने इस प्रकार परिभाषित किया है - ' वैदर्भी रीति अथवा ललितपद-रचना इस प्रकार की हुआ करती है जिसमें समस्त पदावली का प्रयोग नहीं हुआ करता, जहाँ एकाध पद समस्त हो जाय तो कोई हानि नहीं, जिसमें श्लेषादि दसों गुण विद्यमान रहते हैं, जिसमें द्वितीय वर्ग के वर्णों का बाहुल्य सुन्दर लगता है और जिसमें ऐसे वर्णं रहा करते हैं जो कि स्वल्प प्रयत्न से उच्चारित हो सकते हैं । "
१. अन्तराले तु पांचालो वैदर्भ्यायवतिष्ठते । सावन्तिका समस्तः स्याद्वित्रैस्त्रिचतुरैः पदैः ॥
- सरस्वतीकण्ठाभरण, २.३२.
२. पदसंघटना रीतिरंग संस्थाविशेषवत् । उपकर्त्री रसाकीनां - साहित्यदर्पण. ९.१. "सा पुनः स्याच्चतुविधा ।
वैदर्भी चाथ गौडी पांचाली लाटिका तथा ॥ - वही. ४. माधुर्यव्यंजकैर्वर्णे रचना ललितात्मिका ।
३.
अवृत्तिरवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते ॥ - वही, ९. २.
५. असमस्तै कसमस्ता युक्ता दशभिगुणैश्च वैदर्भी ।
वर्गद्वितीयबहुला स्वल्पप्राणाक्षरा च सुविधेया ॥ रुद्रट काव्यालंकार.