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अपभ्रंश कथा: परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : १९९
कथाकार युद्ध और वीरता को प्रेम और श्रृंगार का साधनमात्र समझता है, जिससे उसका मन इन बातों में ही रमता है ।' कथाकाव्यों के काव्यरूप पर विचार करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि चरितकाव्यों को निस्सन्देह रूप से इन कथाकाव्यों की कोटि में परिगणित करना चाहिए । जहाँ एक ओर हम इन्हें कथाकाव्यों की श्रेणी में लाकर बैठाने का प्रयत्न करते हैं वहीं दूसरी ओर चरितकाव्य स्वयं अपने को कथाकाव्य घोषित करते हैं । कहने का अभिप्राय यह कि अपभ्रंश के चरित-लेखकों ने स्वयं हो णायकुमारचरिउ, करकंडुचरिउ, जसहर चरिउ, भविसयत्तकहा, पज्जुण्ण कहा, रिट्ठणेमिचरिउ, पुप्फदंतकहा, महापुराण आदि रचनाओं में उनको कहीं कथा, कहीं चरित और कहीं पुराण कहा है। वास्तव में सर्वत्र उनका कहने का ध्येय 'कहा' से ही रहा है । चरितकाव्यों के स्वरूप-विकास एवं लक्षण पर प्रथम अध्याय में विचार कर चुके हैं। आगे हम कथाकाव्यों के अन्तर्गत आने वाले रास • अथवा रासक पर विचार करेंगे ।
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रास, रासो, रासक आदि के विषय में हिन्दी साहित्य के इतिहासों में एवं अन्यत्र फुटकर निबन्धों के रूप में सविस्तार विवरण अथवा उसके इतिहास की चर्चा हुई है । आचार्य हेमचन्द्र ने रासक को गेय उपरूपक माना है - 'गेयं डोम्बिका भाण प्रस्थान शिंगक भाणिका प्रेरण रामाक्रीड़ हल्ली रासक गोष्ठी श्रीगदित राग काव्यादि अर्थात् प्रेक्ष्य काव्य में • डोम्बिका, भाण, प्रस्थान, शिंगक, भाणिका, प्रेरण, रामाक्रीड़, हल्लीसक, रासक आदि गेय उपरूपकों के अन्तर्गत हैं । वाग्भट्ट ने भी इसी प्रकार को स्वीकार किया है - 'डोम्बिका - भाण- प्रस्थान -भाणिका-प्रेरण-शिंगक. रामाक्रीड़ - हल्ली सकरासक गोष्ठीप्रभृतीनि गेयानि' अर्थात् इनके अभिनयात्मक स्वभाव के कारण ये डोम्बिकादि सभी गेय रूपक हैं : पदार्थाभिनयस्वभावानि गोम्बिकादीनि गेयनिरूपकाणि चिरन्तनैरुक्तानि ।
उक्त आचार्यों के बहुत पूर्व यानी बाणभट्ट ( ७वीं शताब्दी ) के
में रासक पदों के गाये जाने का उल्लेख मिलता है -- ' पदे पदे झणझणितभूषणरवैरपि सहृदयैरिवानुवर्त्तमानताललयाः, कोकिला इव
१. डा० शम्भूनाथ सिंह, हिन्दी महाकाव्यों का स्वरूप और विकास, २. हेमचन्द्र, काव्यानुशासन, ८.४,
पृ० ४०१-४.