Book Title: Apbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Sohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti

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Page 337
________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३२३ ३. इन काव्यों को पद्धति बहत रूढ हो गई है, कवि-प्रथा का पालन बहुत कड़ाई से होता है, इसलिए मौलिक उद्भावना को कमी दिखाई पड़ती है। हरिवंशपुराण में मधुमास का वर्णन करते हुए कवि लिखता है कि फाल्गुन मास बीत गया और मधुमास आ गया। मदन उद्दीप्त होने लगा। लोक अनुरक्त हो गया। वन भाँति-भाँति के पुष्पों से सुन्दर और मनोहर हो गया। मकरन्द-पान से मत्त भ्रमर गुंजार करते हुए सुन्दर लग रहे हैं। गहों में नारियां सज रही हैं, झला झलती हैं, विहार करतो हैं। वन में कोयल मधुर आलाप करती है । सुन्दर मयूर नृत्य कर रहे हैं : फग्गुण गउ महुमासु परायउ, मयणुद्दलिउ लोउ अणुरायउ । वण सय कुसुमिय चारु मणोहर, बहु मयरंद मत्त वहु महुयर । गुमगुमंत खणमणइं सुहावहिं, अहपणट्ठ पेम्मुउक्कोहि । केसु व वहि घणारुण फुल्लिय, ण विरहग्गे जाल पमिल्लिय। घरि घरि णारिउ णिय तणु मंडिहिं, हिंदोलहिं हिंडहि उग्गाहिं । वणि परपुठ्ठ महुर उल्लावहि, सिहिउल सिहि सिहरोहिं धहावइ । -१७.३. ऊपर वसंत ऋतु का एक चित्रण प्रस्तुत किया गया । वस्तुतः ऋतुवर्णन के प्रसंग में यह नहीं कहा जा सकता कि वर्णन की परिपाटी या मान्यता क्या थी अर्थात् उनका क्रम क्या था। किसी ने वसन्त को पहले रखा है तो किसी ने ग्रीष्म को । सामान्यतः षड्ऋतुओं का वर्णन करने वालों ने वसन्त ऋतु से ही ऋतुओं का प्रारम्भ माना है । षड्ऋतु और बारहमासा सम्बन्धी रचनाएँ भारतीय प्रदेशों की कई भाषाओं में उपलब्ध होती हैं। प्रायः षड्ऋतुवर्णन संयोगशृंगार को लेकर हुआ है, संदेशरासक इसका अपवाद है। बारहमासों में प्रकृतिचित्रण आसाढ़ मास से किया जाता रहा है। पूर्व में ऋतुवर्णक कतिपय रचनाओं का नामोल्लेख किया जा चुका है। संदेशरासक और पृथ्वीराजरासो के षड्ऋतुवर्णन भी उल्लेखनीय हैं। इन विभिन्न काव्यों में ये वर्णन विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किए गए ही प्रतीत होते हैं। यों प्राचीनतम प्रणाली में ऋतुवर्णनों का महत्त्व मात्र प्रकृति के सौन्दर्यनिरू

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